Saturday, March 29, 2008

सेकुलर चैनल का रामायण


एनडीटीवी इनेजिन ने जब बड़े जोर-शोर से रामायण को फ्लैगशिप प्रोग्राम की तरह पेश किया, तो उम्मीद जगी थी कि रामायण को एक अलग कोण से देखने का मौका मिलेगा। शायद, राम के चरित्र और उनके व्यक्तित्व पर नई रौशनी की उम्मीद थी। लेकिन, एनडीटीवी का रामायण भी टीआरपी बटोरने का साधन लग रहा है।

रामानंद सागर के रामायण और नए रामायण धारावाहिक में वही संबंध है जो पुराने देवदास और नए देवदास में था। फर्क भव्यता का है। उमदा ग्राफिक्स और ज्यादा युवा राम, जो युवा दर्शकों तक पहुंच रखेंगे। पुराने लोग तुलना के लिए ही सही नए रामायण को देख रहे हैं।

लेकिन एकताकपूरत्व रामायण के नए संस्करण पर हावी है। कैकेयी समेत दशरथ की तीन रानियों की वेशभूषा पर ध्यान दिया है आपने? कैकेयी तो कुमकुम या कसौटी की किसी वैंप जैसी ही दिखती है। कोप भवन में जाने पर उसके सौंदर्य में और भी मारक निखार आया है। हिंदुत्ववादियों से माफी नामे के साथ कह रहा हूं कि मेरी यह भावना महज कैकेयी का चरित्र निभा रही अभिनेत्री के प्रति है। रामायण की माता कैकेयी के प्रति मैं पूरा सम्मान रखता हूं। बहरहाल, सीरियल में कैकेयी का चरित्र निभा रही लड़की अपने प्रदर्सन में राखी सावंतनुमा नहीं दिखने की कोई कोशिश नही करती।

मुझे नहीं पता कि रामायण की टीआरपी कितनी है, लेकिन इस सीरियल की गति बेहद धीमी है, लंबे-लंबे ऊबाई संवाद युवा लोगों को बोर ही करते हैं।

इतना सब होने पर भी एनडीटीवी को सेकुलर होने का दंभ छोड़ देना चाहिए।

Tuesday, March 25, 2008

हेडलाईन टुडे का ब्ला-ब्ला एड

अंग्रेजी का एक चैनल है हेडलाईन टुडे..। शायद आपने कभी देखा भी हो। जैसा कि नाम से जाहिर है टीवी टुडे ग्रुप का उपक्रम है। टुडे ग्रुप के लोगों को लगता है कि दुनिया उन्ही के बल पर चलती है। खासकर मीडिया की दुनिया। उनका हाल में बना और इन दिनों प्रसारित हो रहा एड त कम से कम यही जाहिर कर रहा है। टीवी स्क्रीन पर पहले राजदीप सरदेसाई, विनोद दुआ, करन थापर, योगेंद्र यादव, अरनव गोस्वामी समेत टीवी की दुनिया के तमाम दिग्गज इसके विग्यापन में ब्ला-ब्ला कहते नजर आते हैं। टीवी देखने के लिए सोफे पर लेटा हुआ लड़का ऊबकर टीवी बंदकर देता है।

कहने का गर्ज ये कि अंग्रेजी चैनलों में महज हैडलाईन टुडे ही देखने योग्य है। बाकी सब वितंडा है, कोरी बकवास है। सिर्फ टीवी टुडे नेटवर्क के दो कौड़ी के चैनल ही दर्शनीय हैं। चाहे तेज़ हो, आजतक या एचटी। शिव शंभो। आत्म मुग्ध होना बुरी बात नहीं। गुस्ताख भी आत्म मुग्ध है, लेकिन दूसरों का मजाक बनाना? गुस्ताख को लगता है कि राखी सावंत और ऐसे कपडे खिसकने -खिसकवाने वाली कवरेज करने वाले इस नेटवर्क का अजेंडा ही कुछ और है। मजबूत से लडजाने वाले इंसान को लगता है कि इस कृत्य से उसकी गिनती भी मजबूत लोगो में होने लगेगी। एक ओर जहां अंग्रेजी के दूसरे चैनल एक हद तक सार्थक कवरेज करते हैं, वहीं एचटी के स्तर का सबको पता है।

वहीं एक और समसया है, मीडिया में इस डाल से उस डाल की बंदरकूद होती ही रहती है। कल को अगर दुआ साहब या राजदीप टीवी टुडे जॉईन कर लें तो भी क्या यह एड चलता ही रहेगा?

Monday, March 24, 2008

मौत .. दयालुता के साथ

(अजय रोहिल्ला की लिखी आखिरी पोस्ट उनकी याद में प्रकाशित कर रहा हूं। )

यह बीबीसी की हैडलाइन स्टोरी है..... अग्रेज वाकई में बड़े नमॆदिल और दयालु प्रवॆति के होते है........


अमरीका के कृषि विभाग (यूएसडीए) ने क़रीब साढ़े छह करोड़ किलो गोश्त वापस लौटाने का आदेश दिया है. देश के इतिहास में मांस की वापसी का यह सबसे बड़ा आदेश है.ह्यूमन सोसायटी ऑफ़ अमेरिका के एक वीडियो शॉट के प्रकाश में आने के बाद संयंत्र के कामकाज को रुकवा दिया गया है.

किसी अमेरिकी चैनल पर एक वीडियो में दिखाया गया है कि कैसे बीमार और कमज़ोर पशुओं को संयंत्र के कर्मचारी बाँधते हैं, मारते हैं, विद्युत करंट लगाते हैं और तेज दबाव से उन पर पानी डालते हैं। संयंत्र के दो पूर्व कर्मचारियों पर शुक्रवार को पशुओं के साथ क्रूरता करने का आरोप लगाया गया जिसकी जाँच अभी जारी है

क्रप्या इस लाइन को थोड़ा तसल्ली से पढ़े....

कंपनी का कहना है कि वह यह सुनिश्चित करने के लिए अब कार्रवाई कर रही है ताकि सभी कर्मचारी पशुओं के साथ दयालुता के साथ पेश आएं.(पढ़े दयालुता से मारा जाए)

साला ...जब किसी को मौत देनी ही है तो इसमें दयालुता दिखाकर कौन सा हथिनी की.....पर भाला मार देगे... उन बेजुबानों को आखिरकार मिलनी तो मौत ही है.... क्या कहते है

अजय नहीं रहे

हमारे चैनम डीडी न्यूज़ में असाइनमेंट के साथी अजय रोहिल्ला का होली के दिन देहावसान हो गया। अजय ब्लागिया भी थे और उनका ब्लाग नई राहें नाम से था। अजय ्साइनमेंट के उन गिने-चुने लोगों में से थे, जिनके रिपोर्टरों के साथ भी बेहतर रिश्ते रहे।

अजय अच्छी शख्सियत के इंसान थे। व्यक्तिगत रूप से अजय के साथ मेरे रिश्ते मीठे थे। अजय मेरी पोस्ट पर हमेशा कमेंट करते थे। उनका कहना था कि ब्लाग पर गंभीर चीजों का समावेश होना चाहिए। डीडी के असाइनमेंट डेस्क का बहुत बड़ा नुकसान है। एक बार अजय ने मुझसे कहा था कि मैं एक कहानी लिख रहा हूं। उसे गुस्ताख और तरकश पर छाप देना। वह कहानी अधूरी ही रह गई। अजय हम सब आप को बहुत मिस कर रहे हैं। काश ऐसी होली कभी न आए...

Thursday, March 20, 2008

बीकानेर शहर जूनागढ़ किला



बीकानेर शहर की सभी इमारतों में राजस्थानी वास्तुकला शैली का दीदार होता है। लाल बलुआ पत्थर से बनी इमारतें बीकानेर के सौंदर्य को अद्भुत विस्तार देती हैं।

वक्त बदलने के साथ-साथ शहर ने भी आधुनिकता का रुख किया, लेकिन बीकानेर ने तहज़ीब का दामन नहीं छोड़ा है। इस शहर के आम लोगों की ज़िंदगी भी कमोबेश वैसी ही है जैसी किसी और शहर की होती है। लेकिन इन सबके बावजूद इस शहर की आत्मा है जिसे आप यहां आकर ही महसूस कर सकते हैँ।

बीकानेर के बीचों बीच है जूनागढ़ किला। इसे यहां के छठे शासक राजा रायसिंह ने बनवाया था। राजस्थान में बहुत कम ही क़िले समतल ज़मीन पर बने हैं। जूनागढ़ किले की मजबूती का आलम यह है कि इसे भीषण लड़ाईयों के दौर में भी कभी जीता नहीं जा सका।

१५८८ से १५९३ के बीच बनाया गया जूनागढ़ क़िला राजा राय सिंह की भारत को दी गई अनमोल देन है। राय सिंह मुगल बादशाह अकबर के सेनाधिकारी थे। ९८६ मीटर लंबी पत्थर की दीवार से घिरे किले में ३७ बुर्ज हैं।किले को दो मुख्य दरवाजे हैं , जिसे दौलतपोल और सुराजपोल कहा जाता है। दोलतपोल में सती हुई राजपूत महिलाओं के हाथों की छाप है। किले के दूसरे दरवाजे चांद पोल वगैरह है।

बीकानेर आए और यहां की हवेलियां नहीं देखीं तो आपकी सैर अधूरी मानी जाएगी। पुराने बीकानेर शहर में तंग गलियों के बीच इनकी शानदार मौजूदगी है। बल खाती गलियों के ठीक ऊपर इनके झरोखों की छटा बेहतरीन होती है।

लाल पत्थर से बनी ये हवेलियां अपने आसपास एक जादू-सा बिखेरती हैँ। इनके दरवाज़े हों, नक्काशीदार खिड़कियां हों या फिर बारामदे , इन सबमे कुछ ऐसा है, जिसे राजसी कहा जाता है।

पुराने वक्त मे ये हवेलियां धन्ना सेठों के रहने की जगह हुआ करती थी। यहां के साहूकार साल के नौ महीने कमाने के लिए बाहर सफर करते रहते थे, और तीन महीने के लिए इन शानो-शौकत भरी हवेलियों में अपने परिवार के पास आते थे।

बीकानेर की हवेलियों में से रामपुरिया हवेलियां खासी मशहूर हैं। इन हवेलियों को देखकर आपको जैसलमेर की पटवा हवेली की याद आएगी। वैसे, बीकानेर की रामपुरिया हवेलियां लाल डलमेरा पत्थरों की बनी हैं।

हवेलियों की दीवारों और झरोखों पर पत्तियां और फूल उकेरे गए हैं। कमरों के भीतर सोने की जरी का बेशकीमती काम देखकर आप दांतो तले उंगली दबा बैठेगें।


विरासत को सहेजने का अपना अनोखा अंदाज कहें या फिर विरासत से कमाई करने वाली व्यापारिक बुद्धि - नई पीढी ने इन हवेलियों को कमाऊ जायदाद में तब्दील कर दिया है। रामपुरिया हवेलियों के मालिक प्रशांत मारपुरिया के मुताबिक, हवेलियों को होटल में तब्दील करने की वजह से उनका रखराखाव आसान हो जाता है। कमाई के साथ-साथ ही विरासत भी सहेजा जा सका है इस वजह से।

अगले पोस्ट में ऊन उत्पादन की समस्याओं पर कुछ कहना है।

तुझे सब है पता .. है न माँ

मैं कभी बतलाता नहीं... पर परीक्षाओं से डरता हूँ मैं माँ ...|
यूं तो मैं दिखलाता नहीं ... मार्क्स की परवाह करता हूँ मैं माँ ..|
तुझे सब है पता ....है न माँ ||

किताबों में ...यूं न छोडो मुझे..
पाठों के नाम भी न बतला पाऊँ माँ |
वह भी तो ...इतने सारे हैं....
याद भी अब तो आ न पाएं माँ ...|


क्या इतना गधा हूँ मैं माँ ..
क्या इतना गधा हूँ मैं माँ ..||

जब भी कभी .इनविजिलेटर मुझे ..
जो गौर से ..आँखों से घूरता है माँ ...
मेरी नज़र ..ढूंढे कॉपी में ...सोचूं यही ..
कोई सवाल तो बन जायेगा.....||

उनसे में ...यह कहता नहीं ..बगल वाले से टापता हूँ मैं माँ |
चेहरे पे ...आने देता नहीं...दिल ही दिल में घबराता हूँ माँ ||


तुझे सब है पता .. है न माँ ..|
तुझे सब है पता ..है न माँ ..||

मैं कभी बतलाता नहीं... पर परीक्षाओं से डरता हूँ मैं माँ ...|
यूं तो मैं दिखलाता नहीं ... अंकों की परवाह करता हूँ मैं माँ ..|
तुझे सब है पता ....है न माँ ||
तुझे सब है पता ....है न माँ |

Wednesday, March 19, 2008

होली पर हे दुष्टता, तुझे नमन

हे दुष्टता, तुझे नमन
कुछ न होने से शायद
बुरा होना अच्छा है,
भलाई-सच्चाई में लगे हैं,
कौन से ससुरे सुरखाब के पंख..
घिसती हैं ऐड़ियां,
सड़कों पर सौ भलाईयां,
निकले यदि उनमें एक बुराई,
तो समझो पांच बेटियों पर हुआ एक लाडला बेटा..
थोड़ी सी भलाई पर
छा जाती है बुराई
जैसे टनों दूध पर तैरती है
थोड़ी सी मलाई

मंजीत ठाकुर

कब गंभीर होंगी भोजपुरी फिल्में..

पिछले साल नबंवर में गोवा में हुए भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भोजपुरी फिल्मों की गैरमौजूदगी पर पॼकार बिरादरी ने कुछ सवालात उठाए थे। आयोजकों के जवाब से और लोगों की राय से जो बात सामने आई कि ज्यादातर लोग भोजपुरी फिल्मों को समारोह के लायक नहीं मानते। मलयालम, तमिल और कन्नड़ सिनेमा के बेहतर प्रतिनिधित्व के बरअक्स भोजपुरी फिल्मों का मौजूदा स्तर थोड़ा हताश करने वाला है।

भारतीय सिनेमा के ॿितिज पर भोजपुरी फिल्मों के उदय के दूसरे चरण को देखकर सुखद आश्चर्य होता है। ससुरा बड़ा पईसावाला, दारोगाबाबू आईलवयू से चलकर भोजपुरी फिल्मों ने गंगा और ऐसी ही फिल्मों से अलग मुकाम हासिल कर लिया है।

लेेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर क्या वजह रही कि संघर्षरत लोकगायक मनोज तिवारी अचानक सुपरस्टार बन जाते हैं। अमिताभ, नगमा, अजय देवगन और जैकी ॽॉफ जैसे कलाकार भोजपुरी फिल्मों में काम करने के लिए तैयार है। जाहिर है, काल के स्तर पर बेहद निचले दर्जे का होने पर भीै भोजपुरी का बेहतरीन बिज़नेस नामी बनियों को इस भाषा तक खींच लाया है। 30 लाख की लागत से बनीे मनोज तिवारी की ससुरा बड़ा पईसावाला जैसी सेक्स कॉमिडी ने 15 करोड़ का बिज़नेस किया और उन्ही की दूसरी फिल्म दारोगा बाबू आईलवयू ने 4 करोड़ की कमाई की।

भोजपुरी फिल्मों में अब पुराने बॉलिवुड हिट फिल्मों के रीमेक का दौर आ रहा है। शोले, नमकहलाल जैसी कई फिल्मों का भोजपुरीकरण किया जा रहा है। स्पाइडरमैन जैसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म के मकड़मानव के रूप में रिलीज़ होना भोजपुरी के बाज़ार की ताकत का इज़हार ही तो है। नमकहलाल भी बबुआ खिलाड़ी, ददवा अनाड़ी के नाम से तैयार की जा रही है।

यहां तक सब कुछ बेहतर है। हिंदी फिल्मों का हिंदी पट्टीवाला भदेस दर्शक भोजपुरी फिल्मों की ओर शिफ्ट हो गया है। ससुरा... और दारोगा बाबू.. जैसी छोटे बजट की फिल्मों ने उस वक्त रिलीज हुईं बॉलिवुड की ए-ग्रेड की फिल्मों अभिषेक-अमिताभ-रानी की बंटी और बबली और आमिर की मंगल पांडे- द राइजिंग के कारोबार पर बढ़त पा ली थी। लेकिन, लगता है कि अब भोजपुरी फिल्मों के जागने का वक्त आ गया है। द्विअर्थी संवादों और खराब संपादन, और कहानी में लौंडा नाच जैसी चीजें दर्शक को सिनेमाहॉल तक खींच लाने के लिए ज़रूरी तो है, लेकिन किस्सागोई की जो शानदार परंपरा बंगला, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा में है, गंभीर दर्शक भोजपुरी में भी वैसा स्तर देखने की उम्मीद में है।

क्या ये वक्त नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा थोड़ा गंभीर होकर सोचे..। आखिर हिंदी फिल्मों के दर्शक ने भोजपुरी की ओर क्यों रुख किया है। जा़हिर है, कारपोरेट, कभी खुशी कभी ग़म, कुछ-कुछ होता है या ऐसी ही बड़ी तादाद में बन रही फिल्मों से हिंदी पट्टी का गंवई दर्शक जुड़ नहीं पा रहा था। दरअसल ये फिल्में बनी भी गंवई दर्शकों के लिए नहीं थी।


ये तो बनी ही थीं, सात समुंदर पार बसे अप्रवासी दर्शकों के लिए। पहले भी फिल्मों की तड़क-भड़क और ग्लैमर में गांव नकली था। नकली किसान और गांव की गोरी भी नकली। ऐसे में भोजपुरी फिल्मों ताज़ा हवा के झोके की तरह नमूदार हुईँ। ससुरा.. में ही देखें, तो असली परिवेश में असली चौकी,लोटे, और घटनाओं के साथ कहानी को फिल्माया गया है। ऐसे में दर्शक सीधे अपने आसपास की चीज को परदे पर देखकर सम्मोहित हो गया। इन फिल्मों में वह सब था, जो मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों से गायब हो गया था।

लेकिन बीतते वक्त के साथ भोजपुरी फिल्मों में ताज़ा बयार बहाने की उम्मीद अब धूमिल पड़ती जा रहा है। इन फिल्मों में भी वही सब - यानी मारधाड़, रोमांस, फूहड़ हास्य और बेढभ गाने हैं- जो हिंदी फिल्मों में देख-देखकर दर्शक ऊब गया था और उसी वजह से भोजपुरी की ओर शिफ्ट हुआ था।

ऐसे में भोजपुरी सिनेमा को ज़रूर तमिल सिनेमा से सबस सीखने की ज़रूरत है। कुछ साल पहले तक तमिल सिनेमा भी कथानक के स्तर पर उसी दौर से गुजर रहा था, जहां अभी भोजपुरी का सिनेमा खड़ा है। लेकिन हाल में युवा निर्देशकों की टीम ने मणिरत्नम की राह चलते हुए एक नई ज़मीन फोड़ी है। तमिल में कादल के बाद कल्लूरी इस साल की कामयाब फिल्म साबित हुई है। दरअसल, तमिल सिनेमा में एक ऩई धारा पैदा हुई है।

समकालीन तमिल सिनेमा में आ रहे शांत लेकिन रेखांकित किए जाने लायक बदलाव की कहानी बयां कर रहा है। यह धारा एक नए बौद्धिक, यथार्थवादी और मजबूत पटकथा वाली किस्सागोई वाली फिल्मों की है।
फिल्म में चरित्रों, प्लॉट और संवादों को अचूक तरीके से पिरोया गया है। ये चरित्र छोटे शहरों के होने पर भी हीनभावना से ग्रस्त नहीं है और अपने खांटी गंवईपन को संवेदनाओं के साथ उघाड़ते हैं। फिल्म के सारे चरित्र बिलाशक दॿिण भारतीय दिखते हैं। जाहिर है, उन्हें दिखना भी चाहिए। फ्रेम में दिख रहा हर चेहरा असली दिखता है। पात्रों के चेहरे पर जबरन मेकअप पोतकर सिनेमाई दिखाने की कोई कोशिश नहीं है।


क्या सवाल महज इन फिल्मों की कला, उम्दा निर्देशन या उत्कृष्ट कहानी ही है..। जी नहीं, इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी कमाई भी की है। कल्लूरी जैसी फिल्में अपने कम बजट और यथार्थवाद के बावजूद बड़े सितारे वाले फिल्मों की बनिस्पत ज़्यादा मनोरंजक साबित हो रही हैं। दरअसल, तमिल सिनेमा की इस नई धारा ने व्यावसायिक सिनेमा की ऊर्जा और मनोरंजन को कला सिनेमा की जटिलता और संवेदना में खूबसूरती से पिरों दिया है। इस धारा की झलक तो मणिरत्नम् की नायकन और आयिता इझूथु में ही मिल गई थी, लेकिन ऩई पीढी के फिल्मकारों तक यह संदेश पहुंचने में एक दशक से ज़्यादा का वक्त लग गया।

इन फिल्मों के साथ ही तमिल सिनेमा के एक नए दर्शक वर्ग, युवा दर्शकों का उदय हुआ है। जो नई चीज़ देखना पसंद कर रहा है। पिछली दिवाली पर धड़ाके के साथ रिलीज़ हुई आझागिया तमिल मागन, वोल और माचाकाईन जैसी व्यावसायिक बड़े बजट की फिल्में दर्शकों के इस वर्ग को मनोरंजक नहीं लगता। दरअसल, दर्शकों के इस वर्ग को नई धारा के खोजपूर्ण सिनेमा का चस्का लग गया है। तमिल फिल्मों की इस नई धारा की एक और खासियत है- शैली। हर निर्देशक का अंदाजे बयां ज़ुदा है। इनमें गाने सीमित है, आम तौर पर ये गाने भी पृष्ठभूमि में होते हैं।

छोटी अवधि की इन फिल्मों में कॉमिडी के लिए भी अलग से समांतर कथा नहीं चल रही होती, बल्कि हास्य को कथानक के भीतर से ही सहज स्थितियों से पैदा किया जा रहा है। ज़्यादातर फिल्मों के विषय बारीकी से परखे हुए होते हैं- गंवई कहानियों का बारीक ऑब्जरबेशन। तमिल सिनेमा की इस नई बयार के ज्यादातर चरित्रों की जड़े परिवार, संस्कृतियों और परंपरा में गहरे धंसी हैं। नए तमिल निर्देशकों ने एक ऐसे दर्शक वर्ग के बारे में संकेत दे दिया- जो चरित्रप्रधान, अच्छी पटकथा वाले कम बजट की फिल्मों को सर आंखों पर बैठाने के लिए तैयार है।

तो सवाल ये है कि क्या भोजपुरी दर्शक अच्छी फिल्मों से उदासीन ही रहना चाहता है या फिर उसे ठीक फिल्में मिल नहीं पा रही है। कैमरे की भाषा को और अच्छा किया जा सकने के ढेरों संभावना भोजपुरी में मौजूद हैं। स्थानीय मुद्दों पर बात करने के लिए ज़रूरी नहीं कि हर फिल्म में होली का फूहड़ गीत या लौंडा नाच डाला जाए। भोजपुरी फिल्मों के प्रति अश्लील होने की मानसिकता बन चुकी है, क्या वह बदल नहीं सकती। क्या भोजपुरी निर्देशकों में कोई शक्तिवेल, कोई ऋत्विक घटक,सत्यजित् रे या अडूर नहीं है।

छायाकार रघु राय


जिंदगी के रंग ब्लैक एंड वाईट भी होते हैं, और इन रंगों में जीवन कई बार रंगीन तस्वीरों से भी ज़्यादा रंग होते हैं। आप शायद इस बात पर मुश्किल से यकीन करें, लेकिन आप अगर मशहूर फोटोग्राफर और फोटो जर्नलिस्ट रघु राय के तस्वीरों की दिल्ली के नैशनल गैलरी ऑफ़ मॉाडर्न आर्ट्स में लगी प्रदर्शनी घूम आएं, तो मुमकिन है कि इससे जरूर इत्तेफाक रखेंगे। मंगलवार को शुरु हुई यह प्रदर्शनी 15 अप्रैल तक चलेगी।

तस्वीरों को ज़रिए ज़िंदगी के फलसफे को लेंस से कहने वाले रघुराय ने अपने करिअर के शुरुआती दौर में ब्लैक एंड वाइट माध्यम को तरज़ीह दी, लेकिन बाद में उन्होंने रंगीन तस्वीरों से भी जिंदगी के पल कैंमरे में क़ैद किए। बदलते वक्त के साथ डिजिटल फोटोग्रफी में उनकी महारत ने लोगों को मुग्ध कर दिया। रघु से बात करने पर उन्होंने बताया कि फोटोग्रफी की दोनों विधाओं की तुलना बेमानी है।

बकौल रघु, हर रंग का अपान भावनात्मक मूल्य होता है और लोग रंगीन तस्वीरों के अलग परेशान करने वाले रंगों की बनिस्पत ब्लैक एंड वाईट तस्वीरों को ज्यादा सहजता से लेते हैं। कैमरे पर ब्लैक एंड वाईट फिल्टर लगाते ही तस्वीरों की भाषा ज्यादा सहज हो जाती है।

ऱघु राय ने फोटोग्रफी में हॉरिजॉन्टल और वर्टिकल पैनोरमा में काफी कुछ दिखाने की गुंजाइश पैदा की है। वैसे तो फोटोग्रफी एक पल, एक ॿण को लेंस के जरिए कैद करने का हुनर है, लेकिन यही पल बाद में यादों की अनमोल विरासत और न बदलने वाला इतिहास बन जाता है।
मंजीत ठाकुर

Monday, March 17, 2008

बीकानेर की ओर



हमारी टीम को लेकर आई गाड़ी को होटल तक आने में एक घंटे की देर हो गई। इस बीच मैं चार-पांच सिगरेट फूंक चुका था। टीवी पर डीडी का डीटीएच फिट थी, सो मुझे बेहद कम चैनल ही मगजमारी के लिए उपलब्ध थे। बहरहाल, नीचे गाड़ी का भोंपू बजा।

टीम के ज्यादातर सदस्य पचास की उम्र की आसपास के थे, और अपनी उम्र के उस दौर में थे, जिसे टायर और रिटायर होने की उम्र कहा जाता है। मैं थोड़ा निराश हुआ, लेकिन ड्राईवर युवा था.। बहरहाल, मुझे लगता रहा है कि अनुभवों के बावजूद पुराने लोग (डीडी के) काम करने में हेठी समझते हैं। लेकिन मेरे इस भ्रम का बाद में निवारण हुआ।

हमारी गाडी़ अभी अपने पूरे रफ्तार पर थी, हम जयपुर से सौ किलोमीटर आगे निकल चुके थे। थार की निशानियां दीखने लगीं थीं। रेत के टीलों के बीच खेत झांक रहे थे। ये पूरा इलाका बबूल और कंटीली झाडि़यों से भरा पड़ा है।

रास्ते में हम सीकर में चाय पीने के लिए रूके। एक खास डाबे पर जाकर ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। चाय अच्छी बनी थी, धुं के साथ थकान उड गई। आगे बढ़े। पेड़ों का बौनापन बढता गया। कंटीली झाडियों की आमद ज्यादा हो गई थी। साथियों ने राह में मुझे खेजड़ी के पेड़ भी दिखाए। खेजड़ी राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों का ऐसा पेड़ है, जिसके लगभग हर हिस्से का इस्तेमाल यहां के लोग कर लेते हैं। कमाल का पेड़ है खेजड़ी भी।

बीकानेर पहुंचते-पहुंचते देर हो गई। दोपहर चढ़ आया था। हम सीधे महाराजा करणी सिंहग स्टेडियम चले गए। राह में दीदार हुआ जूनागढ़ किला का। दूर से भव्य किले को जी-भर देखा.. लाल बलुआ पत्थर से बना किला बेहद खूबसूरत है।

बीकानेर.... पश्चिमी राजस्थान का एक रेगिस्तानी शहर.... जो राजपूताने के शाही गौरव का गवाह रहा है। यहां की जीवन शैली और खान-पान में राजस्थान की तहज़ीब की पूरी झलक मिलती है। बीकानेर के रूप में ये शहर सन 1488 में बसाया गया, जब जोधपुर के राजकुमार राव बीकाजी ने 1465 के आसपास इसके आसपास के इलाके को जीत लिया। मुग़ल काल से लेकर अंग्रेजी शासनकाल तक बीकानेर रियासत की अहमियत भारतीय परिदृश्य में बनी रही।

आज़ादी के बाद इस रियासत का भारत मे विलय हो गया। पूरी रियासत चार ज़िलों के रूप में भारत का हिस्सा हैं। लेकिन शहर की स्थापना के बहुत पहले से यह जगह आबाद रही है, जिसके तार सिंधु-सरस्वती सभ्यता तक जाते हैं।

जारी

Sunday, March 16, 2008

बीकानेर की राह में


हाल ही में मुझे एक कवरेज के सिलसिले में बीकानेर जाना पड़ा। जयपुर तक का सफ़र तो शताब्दी से पूरा हुआ। कोई अनुभव नही, अपने-अपने खोलों में सिमटे लोगों से मुलाकात हुई। जयपुर में दिन भर रूकना था। जपुर दूरदर्शन की निदेशक प्रज्ञा जी ने अगली सुबह ४ बजे बीकानेर के लिए निकलने का कार्यक्रम तय कर रखा था। अब मेरे पास पूरा दोपहर और शाम पड़ी थी। चाय-चुक्कड़ सुड़कने के बाद जयपुर के दोस्तों से मिलने का मन बना लिया।

जयपुर के अनेक दोस्तों में से एक हैं राम कुमार। राजस्थान पत्रिका के यशस्वी पत्रकार राम से मेरी मुलाकात एफटीटीआई पुणे में हुई थी। मेरे काल पर जनाब उछल पड़े। शाम को मैं दूरदर्शन के दफ्तर में था। वहां से निपट कर राम कुमार मुझे वहां जवाहर कला केंद्र ले गए।

सर्द शाम को यह अनुभव विलक्षण रहा। प्रह्लाद सिंह टिवाणिया की पुरकशिश आवाज़ में कबीर को सुनना, आह्लादकारी क्षण थे। कबीर की बात, मक्ताकाश मंच, राम का साथ... मजा़ आ गया। जहां पत्रकार जुटें, वहां भोजन की बात न हो तो पूरा वाकया अधूरा लगता है। वहां से फिर हम सवाई मानसिंह स्टेडियम गए। आग तापते हुए राजस्थानी धुनों पर थिरकते लोग, और मनपसंद तत्वसेवन की छूट। कुक्कुट मांस अलग-अलग स्वादों में। मिष्टान्न की भरपूर उपलब्धता।

जयपुर वाले वाकई अच्छे मेहमानवाज होते हैं। गर्म जलेबी... स्वीमिंग पूल के किनारे जलाई आग की सुकूनबख्श गरमाहट..।

मैं अपने सोने की आदतों से परिचित हूं, और एफटीटीआई के दिनों में राम भी अच्छी तरह जान गए थे। तो रात एक बजे वह मुझे होटल तक छोड़ गए, इस वादे के साथ कि अगली मुलाकात और बेहतर होगी। जयपुर के मित्रों की मीठी याद को दिल से लगा कर मैं सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन ईसी उपक्रम के दौरान हमारे साउँड ईंजीनियर का फोन आ गया। मैं तैयार होने लगा। जयपुर से बीकानेर का रास्ता तकरीबन चार सौ किलोमीटर है। सड़क के रास्ते  हमें वहां तक जाना था।

रेगिस्तान हमारा इंतजार कर रहा था। और मैंऽ जिंदगी में पहली बार मरुभूमि का दीदार करने के लिए खुद बेचैन था।

जारी

Saturday, March 1, 2008

बजट मा बड़ी आग है


बजट आ गया। जैसी उम्मीद थी वैसा ही आया। चिदंबरम् ने खूब छूट दी। सब कुछ ऐलान कर दिया। छोड़ दिया तो सिर्फ ये कि चुनाव के तारीखों का ऐलान नहीं किया। चैनलों को कुछ नहीं मिला। खींचने के लिए। लालू की रेल बजट की पोल खोलने में चैनलों ने बहुत दिलचस्पी दिखाई थी। लेकिन चिदंबरम् को लेकर चैनल पॉजिटिव ही रहे। रहना पड़ा। दूरदर्शन तो धन्य-धन्य ही रहा। हां, काम के मामले में बहुत दिनों बाद प्रेफेशनलिज़्म दिखा।
दूसरे चैनल नेगेटिव स्टोरी पेलने में सक्षम नहीं हो पाए, तो जल्द ही औकात पर आ गए। जल्दी ही उनके स्क्रीन मनोरंजन के विजुअल्स से भर गए।

रात का मामला और भी ठीक रहा। इंडिया टीवी सत्य साईं की जादूगरी की पोल खोलने पर लगा रहा। शायद यह उनके दिल टूटने जैसा था। वैसे ये पब्लिक है सब जानती है। जनता को सब पता है बाबाओं की हक़ीक़त। दीपक चौरसिया लाज-लिहाज त्याग कर गांव के लोगों की भाषा में एंकरिंग जैसा कुछ करते नज़र आए। पहली नज़र में चौंक जाना पड़ा। दीपक को नाट्य रुपांतरण मेंदेखना विस्मयकारी था। बाद में देखा तो पता चला स्टार से आए अजय और सोनिया सिंह भी बजट को लेकर पता नही क्या खेल कर रहे थे।

घरवालों ने खीझकर चैनल बदल दिया। कहा न्यूज़ चैनल देखने से बेहतर नया-नवेला फिरंगी और बिंदास देखना बेहतर है।

बजट में सबके लिए कुछ न कुछ है। वोट की लड़ाई में हमारे जैसे घुन के लिए कुछ फायदा था ही। आयकर की न्यूनतम सीमा डेढ़ लाख हो गई। कुछ तो बचा। पर सिगरेट मंहगी हो गई, बजट से पहले ही हो गई थी। चिंदबरम् ने उस पर मुहर लगा दी। किसान खुश हैं। लेकिन सोनिया जी के घर महापवित्र १० जनपथ पर किसानों की भीड़ उमड़ पड़ी। लेकिन आधे घंटे के भीतर दिल्ली में किसानों का ऐसे बड़ी संख्या में जुट जाना गुस्ताख़ को संदेहास्पद लगता है। या तो वे किसान नहीं है। दिल्ली के आसपास के लोग, कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। या फिर नेताओं को पहले से ही बजट की इस बंदरबांट का पता था। किसानों को फौरन से पहले जमा कर लिया था। बजट के बाद विधिनुसार पीएम भी १० जनपथ गए थे। शीश नवाने। मन्नू भाई रब तेरा भला करे।