Monday, December 15, 2008

मुए इधर ना आइयो.. - प्रोलॉग (पूर्वकथन)


ऐसा कम ही होता है कि पहले लेख लिख दिया जाए फिर प्राक्कथन या प्रोलॉग लिखा जाए..। लेकिन ऐसा न करुं तो गुस्ताख़ कहलाऊं ही क्यों?



प्राक्कथन के लिए भी एक कहानी हाजि़र है, आप मतलब निकाल लेने के लिए स्वतंत्र हैं, (हमारी मीडिया की तरह, जो आज़ादी के नाम पर कुछ भी कहीं भी कभी भी बेच सकती है)



कहानी- भारत समुदायों में बंटा है। जाति के आधार पर, धर्म के आधआर पर तो है ही, अब राज्य और जिले के स्तर पर भी बंटवारा दिखने लगा है। बहरहाल, एक राज्य है जिसके निवासी पहले काफी वीरता दिखा चुके हैं पर दंतकथाओं में इसके निवासी प्रायः कायर या भीरु बताए जाते हैं।



इस सूबे के ही इसी समुदाय के एक महोदय रेल में सफर कर रहे थे। रेल की राह एक दूसरे सूबे से होकर गुजरती थी, जिसके निवासी प्रायः बेहद अशालीन, असभ्य, बर्बर और उद्दंड माने जाते हैं। ( साबित होता है कि किसी को कुछ भी कभी भी माना जा सकता है) । रेल में सफर के दौरान पहले राज्य के निवासी का दूसरे राज्य के निवासी से झगडी़ हो गया। हमारे यहां रेल यात्रा के दौरान पहले चरण में लात-घूंसे चलने का दौर-दौरा रहता है, तत्पश्चात् मित्रता का भाव आता है। जो खीरा से लेकर झालमुडी बांटने तक स्थायी हो जाता है)



तो, हुआ यूं कि प्रथम चरण में ही दोनों के बीच चरणों का आदान-प्रदान हुआ। घर के किराए के साथ बिजली बिल की तरह गालियां दी -ली गईं। पहले राज्य वाले निवासी थोड़े पिट-से गए। कई ताबड़तोड़ घूंसे उन्हें पड़ गए, क्योंकि कहावत है कि उस खास राज्य के पढ़े-लिखे लोग मार-पीट इत्यादि में थोड़े कमज़ोर हो गए हैं।



लेकिन उन सज्जन से रुका नहीं गया। कहने लगे मुझे पीट दिया कोई बात नहीं, मेरी बीवी को मार कर दिखाओं तो फिर बताता हूं। दूसरे सूबे वाले को औरतों-वगैरह की इज़्ज़त का ज्यादा ख्याल था नहीं, सो बेचारे की बीवी को भी मार खाने पड़ी। इसी तर्ज़ पर उन महौदय ने अपने बेटे और बेटी को भी मार खिलवा दिया। फिर भी चुप बैठे रहे।



दूसरे वाले सज्जन(?) अपने गंतव्य पर उतर गए। उनके जाने के बाद बीवी-बच्चों ने शोर मचाया कि आप मार ही खा चुके थे, तो हमें पिटवाने की क्या ज़रुरत? महोदय तपाक से बोले- अगर मैं अकेला मार खा कर घर जाता तो तुम सब क्या मुझे बोर नहीं बनाते? मुझे चिढा़ते नहीं?



कहानी इतचनी सी ही है। जो मतलब निकालना हो निकालिए। और हां, एक डिस्क्लेमर देना ज़रुरी समझता हूं- कहानी पूरे समुदाय को लेकर नहीं है। उन महाशय के ही समुदाय ने कई जगह दंगा-फसाद करके साबित कर दिया है कि वो कायर नहीं हैं और मार-पीट कर सकते हैं। आगजनी वगैरह में सक्रिय भागीदारी ने उनकी वीरता को स्थापित कर दिया है। हां, देश के लिए एक जुट होने में पहले अपने सूबे की याद ज़रुर आती है। और वो एक होने से मना कर देते हैं।



3 comments:

डॉ .अनुराग said...

पहले लगा की ओये लकी ओये की तरह का कुछ किस्सा सुनाओगे ...पर यहाँ तो किस्सा ही दूसरा है

राज भाटिय़ा said...

बीबी ओर बच्चो कि जगह दोस्त रखते तो ज्यादा मजा आता.
धन्यवाद

कुमार आलोक said...

ऐसे उदाहरण बंगाली बाबू के लिये पूर्व में दिये जाते थे । मंजीत बाबू जरा संभल के ...