Wednesday, June 24, 2009

मेरा भारतनामा- दिल्ली से कोलकाता, पहला पड़ाव


देश की धड़कन देखने निकला हूं, कोलकाता की ओर..। सड़क के रास्ते दिल्ली से कोलकाता.....


बॉस के आइडिए ने दिल और दिमाग झंकृत कर दिया मेरा तो। कार्यक्रम है बजट यात्रा । बजट से ऐन पहले देश कीजनता की समस्याओं पर कुछ काम किया जाए। काम न भी हो कम से कम जनता का मिज़ाज तो भांप ही लिया जाए।

मेरा रुट बना, दिल्ली से मथुरा, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद होते बनारस, सारनाथ, गाज़ीपुर, आज़मगढ़, होते कुशीनगर से बेतिया, मोतिहारी, मुजफ़्फ़रपुर, पटना, नालंदा, बिहार शरीफ, नवादा, कोडरमा, हज़ारीबाग़, फिर वहां से इसरी-डुमरी-पारसनाथ होते आसनसोल, पानागढ़, वर्धवान, दुर्गापुर, फिर वहां से कोलकाता।


हमारा सफर १५ तारीख को शुरु हुआ। गनीमत ये रही कि एसी गाड़ी मिल गई। साथ में कैमरामैन आनंद प्रकाश और सुनील के साथ साथी रिपोर्टर थी स्वाति बक्षी। स्वाति गरमी से परेशान थी।

सुबह को सफर की शुरुआत हुई तो मजा़ आ रहा था। स्वाति खेतों की कथित हरियाली से खुश थी। पलवल में जाकर सड़क के किनारे चाय पी। स्वाति और आनंद घर का खाना लेकर आए थे। मैंने खूब चकल्लस उडा़या। घर का खाना, आगे नहीं मिलने वाला था।


हालांकि इस बात से मैं जरा भी परेशान नहीं था, क्योंकि पूरे चुनाव के दौरान मैं ट्रक ड्राइवरो वाली जिंदगी जी चुका था। स्वाति अनजान थी कि आगे क्या होने वाला है। मथुरा में लस्सी पीते, आगरा में कुछ खाते हम रास्ते में शूट भी करते जा रहे थे। खेतों में मूंग की फसल प्रौढ़ हो चुकी थी, उनकी फलियों को तोड़ने वाली महिलाओं में लेकिन नौजवान भी थीं, बच्चियां भी,।


वहीं स्वाति ने पहली बार कच्चे मूंग का स्वाद चखा। अपना ज़िक्र इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि मेरे लिए यह सब पहली बार नहीं था। उसे मैंने खेतों की मेढ़ पर उगे भांग की पत्तियां भी दिखाईँ। उसे भरोसा ही नहीं हुआ कि जिस मारिजुआना की बात इतने अदब से की जाती है , वह दरअसल देसी भांग ही है।


मैंने समझाने की कोशिश की कि देसी चीज़े हीं परदेश आकर बदल जाती हैं। मुलम्मा चढ़ते ही स्वाद बदल जाता है। गांव का कच्चापन शहर आते ही रंग बदल लेता है। वरना मारिजुआना की गोली में क्या दम कि वह गांव की ठंडई का मुकाबला कर ले।


बहरहाल, उसने भांग की कुछ पत्तियों को अपने हैंडबैग में बतौर अमानत छुपा लिया। आनंद ने गुजारिश की कि बिहार या झारखंड में उसे ताड़ी पिलवाऊं। मैंने उसे देशी स्कॉच के बारे में बहुत कुछ बताया था। कहा था कि इसका नशा सूरजमुखी के फूल की तरह दिन चढ़ने के साथ बड़ता है। देह में हवा लगते ही आदमी बहकता है, मानो बसंती हवा हो।


ड्राइवर थोड़े बुजुर्ग थे, लेकिन वह बुजुर्ग भी क्या बुजुर्ग जिसे मेरा साथ मिलते ही जवानी न उबाल मारने लगे। साहब, ऐसी घुट्टी कान में पिलाई कि इनोवा ने ८० छोड़ ११० की रफ्तार पकड़ी। ये रफ्तार जरुरी थी, वरना कानपुर पहुचंते देर हो जाती, या रास्ते में लटक जाते तो सारा शिड्यूल गड़बड़ हो जाता।
तेजी़ के बावजूद कानपुर पहुचंते रात के ११ बज गए। रात में वही रुकना हुआ। होटल था किसी चारखंभा कुआं के पास.. इतनी गहरी नींद सोए कि रात में सपने भी नहीं आए..। क्या ये शुभ संकेत था?

तस्वीरें रोल में हैं, नेगेटिव निकलते ही पोस्ट करुंगा


जारी....

3 comments:

Udan Tashtari said...

बड़ा लम्बा सफर..अच्छा लग रहा है सफरनामा.

एक बाद बतायें..आज के जमाने में तस्वीरें रोल में?? डिजिटल कैमरे नहीं इस्तेमाल करते क्या? कोई खास वजह?

यती said...

hahahahaha

sushant jha said...

ये इनकी पहली मुहब्बत है....इसीलिए डिजीटल लाख जींस-टॉप में हो...रोल की साड़ी ही इन्हे अच्छी लगती है:)