Tuesday, November 30, 2010

भविष्य के सिनेमा का ट्रेलरः फिल्म सोशलिज़्म

(लेखक अजित राय विश्व सिनेमा के जानकार हैं। आजकल गोवा में भारत के ४१वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में फिल्मों का रसास्वादन कर रहे हैं)

विश्‍व के सबसे महत्‍वपूर्ण फिल्‍मकारों में से एक ज्‍यां लुक गोदार की नयी फिल्‍म ‘फिल्‍म सोशिएलिज्‍म’ का प्रदर्शन के भारत के 41वें अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह की एक ऐतिहासिक घटना है। 

पश्चिम के कई समीक्षक गोदार को द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद का सबसे प्रभावशाली फिल्‍मकार मानते हैं। इस 80 वर्षीय जीनियस फिल्‍मकार की पहली ही फिल्‍म ‘ब्रेथलैस’ (1959) ने दुनिया में सिनेमा की भाषा और शिल्‍प को बदल कर रख दिया था। 




फिल्‍म सोशिएलिज्‍म’ गोदार शैली की सिनेमाई भाषा का उत्‍कर्ष है। इसे इस वर्ष प्रतिष्ठित कॉन फिल्‍मोत्‍सव में 17 मई 2010 को पहली बार प्रदर्शित किया गया। गोदार ने अपनी इस फिल्‍म को ‘भाषा को अलविदा’ (फेयरवैल टू लैंग्‍वेज) कहा है। 

अब तक जो लोग यह मानते रहे हैं कि शब्‍दों के बिना सिनेमा नहीं हो सकता, उनके लिए यह फिल्‍म एक हृदय-विदारक घटना की तरह है। इस फिल्‍म को दुनिया भर में अनेक समीक्षक उनकी आखि‍री फिल्‍म भी बता रहे हैं। 

यह अक्‍सर कहा जाता है कि सिनेमा की अपनी भाषा होती है और वह साहित्यिक आख्‍यानों को महज माध्‍यम के रूप में इस्‍तेमाल करता है। गोदार की यह फिल्‍म आने वाले समय में सिनेमा के भविष्‍य का एक ट्रेलर है, जहां सचमुच में दृश्‍य और दृश्‍यों का कोलॉज शब्‍दों और आवाजों से अलग अपनी खुद की भाषा में बदल जाते हैं। 


गोदार ने पहली बार इसे हाई डेफिनेशन (एच डी) वीडियो में शूट किया है। वे विश्‍व के पहले ऐसे बड़े फिल्‍मकार हैं, जो अपनी फिल्‍मों की शूटिंग और संपादन वीडियो फार्मेट में करते रहे हैं। यह उनकी पहली फिल्‍म है, जहां उन्‍होंने अपनी पुरानी तकनीक से मुक्ति लेकर पूरा का पूरा काम डिजीटल फार्मेट पर किया है। 



गोदार ने अपनी फिल्‍मों से आख्‍यान, निरंतरता, ध्‍वनि और छायांकन के नियमों को पहले ही बदल डाला था और हॉलीवुड सिनेमा के प्रतिरोध में दुनिया को एक नया मुहावरा प्रदान किया था। वे कई बार अमेरिकी एकेडेमी पुरस्‍कारों को लेने से मना कर चुके हैं। इस नयी फिल्‍म में उन्‍होंने शब्‍द, संवाद, पटकथा की भाषा आदि को पीछे छोड़ते हुए ‘विजुअल्‍स‘ की अपनी भाषाई शक्ति को प्रस्‍तुत किया है। इस प्रक्रिया में कई बार हम देखते हैं कि जो ध्‍वनियां हमें सुनाई देती हैं, दृश्‍य उससे बिल्‍कुल अलग किस्‍म के दिखाई देते हैं। इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह केवल गोदार का एक कलात्‍मक प्रायोगिक और तकनीकी आविष्‍कार है। 


इस फिल्‍म की संरचना में उनका अस्तित्‍ववाद और मार्क्‍सवाद का राजनैतिक दर्शन पूरी तरह से घुला-मिला है। उन्‍होंने कहा भी है कि ‘’मानवता के लिए भविष्‍य का दृष्टिकोण प्रस्‍तुत करने का काम केवल सिनेमा ही कर सकता है क्‍योंकि हमारे अधिकतर कला-माध्‍यम अतीत की जेल में कैद होकर रह गए हैं’’। 
गोदार की नई कृति ‘फिल्‍म सोशिएलिज्‍म’ दरअसल तीन तरह की मानवीय गतियों की सिम्‍फनी है। फिल्‍म के पहले भाग को नाम दिया गया है ‘कुछ चीजें’। इसमें हम भूमध्‍य सागर में एक विशाल और भव्‍य क्रूजशिप (पानी का जहाज) देखते हैं, जिस पर कई देशों के यात्री सवार हैं और अपनी-अपनी भाषाओं में एक दूसरे से बातचीत कर रहे हैं। इन यात्रियों में अपनी पोती के साथ एक बूढ़ा युद्ध अपराधी है, जो जर्मन, फ्रेंच, अमेरिकी कुछ भी हो सकता है, एक सुप्रसिद्ध फ्रेंच दार्शनिक है, मास्‍को पुलिस के खुफिया विभाग का एक अधिकारी है, एक अमेरिकी गायक, एक बूढ़ा फ्रेंच सिपाही, एक फिलिस्‍तीनी राजदूत और एक संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ की पूर्व महिला अधिकारी भी शामिल है। 


गोदार ने समुद्र के जल की अनेक छवियां मौसम के बदलते मिजाज के साथ प्रस्‍तुत की हैं। जहाज पर चलने वाली मानवीय गतिविधियों का कोलॉज हमारे सामने एक नया समाजशास्‍त्र रचता हुआ दिखाया गया है। सिनेमॉटोग्राफी इतनी अद्भुत है कि रोशनी और छायाओं का खेल एक अलग सुंदरता में बदलता है। 
फिल्‍म के दूसरे हिस्‍से का नाम ‘अवर ह्यूमैनिटीज’ है जिसमें मानव-सभ्‍यता के कम से कम 6 लीजैंड बन चुकी जगहों की यात्रा की गई है। ये हैं मिश्र, फिलिस्‍तीन, काला सागर तट पर यूक्रेन का शहर उडेसा, ग्रीक का हेलास, इटली का नेपल्‍स और स्‍पेन का बर्सिलोना। 

तीसरे भाग को ‘हमारा यूरोप’ कहा गया है जिसमें एक लड़की अपने छोटे भाई के साथ अपने माता पिता को बचपन की अदालत में बुलाती है और स्‍वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्‍व के बारे में कई मुश्किल सवाल करती है। 
गोवा फिल्‍मोत्‍सव में गोदार की ‘फिल्‍म सोशिएलिज्‍म’ बिना अंग्रेजी उपशीर्षकों के दिखाई गई। गोदार कुछ दिन बाद 3 दिसम्‍बर 2010 को अपनी उम्र के 81वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उनकी कही गई एक बात, जिसका अक्‍सर उल्‍लेख किया जाता है, इस फिल्‍म को देखते हुए याद आती है। उन्‍होंने कभी कहा था कि ‘’सिनेमा न तो पूरी तरह कला है, न यथार्थ, यह कुछ-कुछ दोनों के बीच की चीज है।’’ इस फिल्‍म के कुछ दृश्‍य इतने सुंदर हैं कि उनके सामने विज्ञापन फिल्‍में भी शर्मा जाएं। 


संक्षेप में, हम इसे कला, इतिहास और संस्‍कृति का क्‍लाइडोस्‍कोपिक मोजे़क कह सकते हैं।


--अजित राय
 


Monday, November 8, 2010

ऐ लीलाधर सांवरे, ओबामा....

भला लीलाधर की लीला कोई समझ सका है..दुनिया का सबसे मजबूत देश उन पर ऐसे ही न्योछावर न हो गया। सांवरी सुरतिया वाले लीलाधर की मुस्कान देखी है- हम इसको चवन्निया मुस्कान से दो कदम आगे का बताते हैं।

दुनिया को मामा बनाने वाले ओबामा, भारत आए तो सौदागरों की भाषा में बतियाने लगे। हम इसे भी लीलाधर की लीला ही कहेंगे।

चवन्नी मुस्कान बहुत कुछ बेच लेती है।



ओबामा ने अपने भाषण की शुरुआत में ही ऐलान किया, कि भारत दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है ही, हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। उनके इस कथन का सीधा सा मतलब यही है कि, भारत दुनिया के लिए अहम हो ना हो..हमारे लिए बहुत अहम है। टेढा़ मतलब निकालें तो उनके भा्षण के अंशों को खंगालना होगा--महाबलि ओबामा उचारते है कि दोनों देशों के बीच व्यापार बहुत कम है, भारत के कुल आयात का महज 10 फीसद ही अमेरिका से आता है। और  अमेरिका के कुल निर्यात का महज दो प्रतिशत भारत में आता है।

तो यह सौदागर अपना निर्यात बढाने आया है। इस मुस्कान के पीछे मत जाइए। इसी ने आउटसोर्सिंग पर रोक लगाने वाले कानून पेश कर दिए हैं, अमेरिकी संसद में।

सेंट ज़ेवियर कॉलेज में एक छात्र ने जब पाकिस्तान के बारे में, यानी अमेरिका के लाडले के बारे में पूछा कि उसे आतंकवादी देश घोषित क्यों नही करते, तो मुझे तो हंसी आई।

माफ कीजिएगा, मैं कृष्ण के इस आधुनिक अवतार पर कैसे हंस सकता हूं।  और कृष्ण के अवतार वाली बात को आधे अर्थो में समझिएगा। गोपियों वाली सारी लीलाएं कृष्ण क्लिंटन महोदय के हिस्से कर गए और बाकी सौदगरी -महाभारती कलाएं ओबामा के नाम।

आज ओबामा की चौड़ी-चकली मुस्कान देखी तो मुझे कृष्ण नजर आ गए, बाकियों को मंजर नही दिखा होगा क्योंकि कृष्ण ने जब अपना स्वरुप दिखाया राजसभा में तो कहां नजर आया ता किसी को।

बहरहाल, मुझे हंसी आई थी उस नादान लड़के पर जिसने पाकिस्तान को आतंकवादी घोषित करने का सवाल कर दिया। भइए, कोई लाला अपने दो ग्राहकों में झग़ड़े फसाद करवा सकता है, लेकिन वह किसी  एक को माल बेचना बंद करनाअफोर्ड ही नही कर पाएगा।

पहले तालिबान को हथियार दिए, फिर पाकिस्तान से कहा इनका विनाश कर दो, फिर भारत से कहा आपके पड़ोस में अशांत पाकिस्तानआपके ही विकास के लिए खतरा होगा। और फिर पाकिस्तान में अपनी मजबूती बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि ईरान पर निगाह कड़ी रखने के लिए पाकिस्तान में पांव मजबूती से जमे रहने चाहिए। उधर अफगानिस्तान भी है।

किसी नादान ने सांवरे बनवारी से अफगानिस्तान के बारे में भी पूछ दिया। ओए नादानों, इतना भी मालूम नहीं कि भारत भी नही चाहता कि 2011 को घोषित तारीख से अगर अफगानिस्तान से अमेरिका हट जाए तो सबसे ज्यादा मुश्किल भारत को ही होगी।

पाकिस्तान अपगानिस्तान में अपनी बदमाशियों में की गुना बढोत्तरी करेगा। भारत इसे झेल नही पाएगा, तो गुहार लगाएगा लीलाधर से।

हे नव-द्वारिका ( वॉशिंगटन-डीसी) में बैठे आकाओँ, देखों पड़ोसी लौंडा देश हमें छेड़ रहा है।

अतएव, अमेरिका का अफगानिस्तान में भी बने रहना - जाहिर तौर पर भारत के हित में - ही होगा। बल्कि ओबामा का अमेरिका दुनिया के हर उस देश में पैर जमाने की कोशिश करेगा जहा तेल गैस है। तेल-गैस से बदहजमी होती है, अमेरिका कभी नही चाहेगा कि दुनिया को बदहजमी हो। तदर्थ, अमेरिका उन सभी देशों को, भू-भागों को अपने कब्जे में लेगा जहां ऐसे तेल गैस वगैरह घटिया चीजें है।

आधुनिक लीलाधर शिव की तरह हलाहल को कंठ में समो लेंगे।

ओबामा को मीडिया वाले भले ही मामा-मामा कहते हों, लेकिन सच यही है कि दुनिया नटचाने वाले ने भारत में रास रचा कर दिखा दिया, कि दिखाने को तो हम भारत में बच्चों के साथ सपत्नीक नाच सकते है, लेकिन हमसे तिजारत करो, सीदे-सीधे वरना नचा के मार देंगे।

वो काला एक .....भों... वाला..सुध बिसरा गया मोहि ...सुध बिसरा

Thursday, November 4, 2010

विपरीत रति

जिस तरह सिख धर्म में 'पंच-ककार' प्रसिद्ध है, उसी तरह  वामाचार में 'पंच-मकार' का भी स्थान है। पंच मकारों में भी  साधकों का असली जोर रहा, 'मुद्रा' यानी 'स्त्री' और 'मैथुन' पर। यहां मेथुन का अर्थ महज संभोग है, गर्भाधान नहीं।

गर्भाधान-विहीन रति के बारे में तथ्य चाहे जो हों, लेकिन एक प्रक्षेपण यह है कि इसके समाज में उठने और अध्यात्म के स्तर तक पहुंचने के पीछे कोई जानदार कारण रहा होगा।

बौद्ध धर्म के उत्थान के साथ ही, जब भिक्षुणियों को भी भिक्षुओं के साथ विहारों में रहने की अनुमति मिल गई, तब उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण हुआ ही होगा। क्योंकि यौनाकर्षण प्रकृति-प्रेरित है, स्वाभाविक भी है। मुमकिन है, संघ  और मठों  का नाम विहार पड़ने के पीछे भी कुछ ऐसे ही प्रतीक हों।

विहारों में संतानोत्पत्ति पर रोक ने ऐसे उपाय खोजने की प्रेरणा दी होगी, जिसमें संभोग संभव लेकिन गर्भाधान असंभव हो। हठयोगी अभ्यासी से जिस दिन यह मुमकिन हुआ होगा, प्रकृति का पाश टूट गया होगा। पुरुष ने अपने को अच्युत पाया होगा। अच्युत- जो च्युत नही हुआ--गिरा नहीं--चुआ नहीं--स्खलित नहीं हुआ।  अच्युत केशवं--और यहीं से इस अनुभव को आध्यात्मिक उपलब्धि माना गया होगा।

इसी को विपरीत रति की संज्ञा दी गई होगी।

समरति में स्त्री वीर्य धारण कर गर्भवती होती है। विपरीत रति में पुरुष उर्ध्वरेता हो ब्रह्मपद प्राप्त करता है। आसन के अर्थ में विपरीत रति कामशास्त्रियों की सूझ होगी। उसके सौंदर्य पक्ष को स्वीकार करते हुए भी भक्त कवियों ने विपरीत रति के आध्यात्मिक संकेत ही दिए हैं। जयदेव लिखते हैं---

उरसि मुरारे उपहितहारे धन इव तरल बलाके
तडिदिवपीते रतिविपरीते राजसि सुकृत विपाके।।

यहां कृष्ण पुरुष-रुप और राधा प्रकृति-स्वरुपिणी है। पुरुष, कभी च्युचत होने वाला नहीं है। प्रकृति ही च्युत-चलित-स्खलित होती है।

यहां पुरुष हिरण्य धारण कर हिरण्यगर्भ बनता है--हिरण्य, सोना-रज---दोनों पीत--तडिदिवपीते। इसीलिए पुरुष प्रकृति का सहज संबंध, उनकी क्रीडा, उनकी लीला, विपरीत रति से ही व्यक्त की जा सकती है।

बुद्द ने अप्राकृतिक साधना को प्रतिष्ठित किया, भारतीय सनातनी मनीषा ने नर-नारी की प्राकृतिक मांग को फिर से समाज के बीच स्थापित किया। उसे अध्यात्म के स्तर तक उठाया, जिसमें वाम मार्ग का इतिहास छिपा है।

खासियत ये कि मार्ग में भ्रष्ट हुए तो सांसारिकता मिलेगी, और शुद्ध हुए तो आध्यात्मिकता।

(मूल पाठः नीड़ का निर्माण फिर, से)