Friday, December 23, 2016

क्या सिद्धू फुंके हुए कारतूस हैं?

ठहाकों के सरदार नवजोत सिंह सिद्धू अब कांग्रेस का दामन थामेंगे। उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर सिद्धू और हॉकी खिलाड़ी और सिद्धू के साथी परगट सिंह पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं।

इसका मतलब यह हुआ कि नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और वह सीट अमृतसर-पूर्व की सीट भी हो सकती है, जहां से निवर्तमान विधायक उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर रही हैं।

बीजेपी से दूरी बनाने की जो भई वजहें खुद सिद्धू गिनाएं और या फिर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस से पींगे बढ़ाने के पीछे उनकी मंशा क्या है यह साफ करें, लेकिन यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि आखिर पंजाब की राजनीति में सिद्धू को क्या ताकत हासिल है? आखिर, पंजाब में कांग्रेस के खेवनहार कैप्टन अमरिन्दर सिंह क्यों पहले सिद्धू के कांग्रेस में आने से नाखुश थे और अब क्यों उन्होंने सिद्धू के आने की खबरों का स्वागत किया है। (गुरूवार को सिद्धू की पत्नी कांग्रेस में जाने की खबरों की पुष्टि कर चुकी हैं)

नवजोत सिंह सिद्धू को अरुण जेटली ही राजनीति में लेकर आए थे। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अमृतसर के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू की जगह बीजेपी ने अरुण जेटली को वहां से उम्मीदवार बनाया। गुस्साए सिद्धू ने जेटली के लिए चुनाव प्रचार नहीं किया। हालांकि, इसी साल अप्रैल में बीजेपी ने सिद्धू को राज्यसभा की सदस्यता दी, लेकिन सिद्धू बजाय राज्यसभा जाने के एक कॉमिडी शो में सिंहासन पर बैठकर ठहाके लगाते और शेरो-शायरी करते देखे गए।

बहरहाल, ऐसा लग गया था कि यह क्रिकेटर विधानसभा चुनाव से पहले कुछ तो करेगा और पंजाब की राजनीति में उबाल आया तो सत्ताविरोधी लहर की और आम आदमी पार्टी की संभावनाओं के मद्देनज़र सिद्धू का नाम भी आप से जोड़ा जाने लगा। हालांकि, न तो आप ने और न कभी सिद्धू ने इसके बारे में किसी अंतिम फ़ैसले पर टिप्पणी की।

फिर सिद्धू ने 18 जुलाई को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनकी पत्नी और अमृतसर से विधायक नवजोत कौर सिद्धू ने भी इस्तीफ़ा दे दिया। यानी तस्वीर साफ होने लगी थी।

आम आदमी पार्टी में शामिल होने को लेकर बात यहां तक गई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी कई बैठकें भी हुईं, लेकिन बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई।

कहा जाता है कि सिद्धू आप से अपने लिए, पत्नी और अपने कुछ लोगों के लिए विधानसभा चुनाव की टिकट मांग रहे थे. लेकिन आप का संविधान एक ही परिवार के दो लोगों को टिकट देने से रोकता है।

इसके बाद उन्होंने पूर्व हॉकी खिलाड़ी परगट सिंह और लुधियान के दो विधायक भाइयों के साथ 'आवाज़-ए-पंजाब' के नाम से एक राजनीतिक मंच बनाया।

उनका कहना था कि उनका मंच चुनाव में उन लोगों का साथ देगा जो पंजाब के लिए कुछ अच्छा करना चाह रहे हैं. लेकिन उन्होंने उन लोगों का नाम नहीं बताया जिनका वो साथ देना चाहते हैं. इस तरह उन्होंने अपने विकल्पों को खुला रखा।

बाद में 'आवाज़-ए-पंजाब' में सिद्धू के साथ आए लुधियाना के दोनों विधायकों ने आप में शामिल होने का फ़ैसला किया।

सवाल यह है कि आखिर नवजोत सिंह सिद्धू में ऐसा क्या ख़ास है कि आप हो या कांग्रेस उनके आने से खुश है और अपना हाथ ऊपर मान रही है। असल में, इसकी एकमात्र वजह है सिद्धू की पृष्ठभूमि क्रिकेटर की होना और यही वजह है कि सिद्धू भी अपने मशहूर ‘खड़काओ’ की तर्ज पर मंजीरा छाप होकर निकल लिए हैं। अब यह उनका अति-आत्मविश्वास ही है कि उन्हें लगता है कि वह बेहद कामयाब या करिश्माई शख्सियत हैं और पंजाब की राजनीति के लिए अपरिहार्य हैं।

वैसे, सिद्धू ने गोटी बड़े करीने से खेली है और इस बार चुनाव में उनने पंजाबी बनाम बाहरी का दांव चल दिया है। ठीक बिहार विधानसभा चुनाव की तरह और अगर यह दांव सही पड़ गया तो मूलतः हरियाणा के केजरीवाल को नुकसान हो जाएगा।

बहरहाल, सिद्धू को जब बीजेपी में खास तवज्जो नहीं मिली तो आप के ज़रिए उन्होंने सीएम की कुरसी पर निशाना साधने की कोशिश की और अब कम से कम इतना ज़रूर चाहते हैं कि वह किंग नहीं तो कम से कम किंगमेकर की भूमिका में ज़रूर रहें।

पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वालों का मानना है कि जिस समय नवजोत सिंह सिद्धू की आम आदमी पार्टी से बातचीत चल रही थी, उस समय अगर वो आप में शामिल हो गए होते तो शायद उन्हें बड़ी सफलता मिलती।

लेकिन जिस तरीके से पिछले तीन-चार महीने में सिद्धू और उनकी पत्नी नवजोत कौर अलग-अलग पार्टियों से बातचीत में मशगूल दिखाई दीं, तो लोगों में यही संदेश गया कि वे लोग सियासी मोल-भाव में व्यस्त हैं। जाहिर है, इससे उनकी चमक कम हुई है।

वैसे भी, सिद्धू के लिए इससे भयभीत होने की ज़रूरत नहीं। पंजाब की पार्ट-टाइम पॉलिटिक्स तो किसी भी स्टूडियो से हो सकती है।



मंजीत ठाकुर

Thursday, December 22, 2016

गांवों की बात कौन करेगा

लोगों से एक खचाखच भरे ऑडिटोरियम में कभी शीलू राजपूत दमदार आवाज़ में आल्हा गूंजता है, फिर एक मदरसे की लड़कियां क़ुरान की आयतों को अपना मासूम स्वर देती है, ओर फिर गूंजती है वेदमंत्रो की आवाज़। लोगों के चेहरे विस्मित हैं। इन प्रतिभाओं में एक बात समान थी। यह सभी लोग गांव के थे। ठेठ गांवों के। जिनके लिए मुख्यधारा के मीडिया के पास ज़रा भी वक्त नहीं।

तो जब मुख्यधारा का मीडिया बहसों और खबरें तानने की जुगत में लगा रहता है, उस दौर में गांव की घटनाएं, नकारात्मक और सकारात्मक दोनों खबरें हाशिए पर पड़ी रह जाती हैं।

खबर दिल्ली की होंगी, या फिर बड़े शहरों की और बहुत हुआ तो दिल्ली जैसे शहरों के सौ किलोमीटर के दायरे में घटने वाली घटनाएं कवर कर ली जाती हैं। क्या वजह है?

चलिए, हम मुख्यधारा के मीडिया की आलोचना करने की बजाय यह देखें कि इस दिशा में कौन काम कर रहा है। निश्चित ही, यह नज़ारा देखने के लिए आपको स्वयं फेस्टिवल में मौजूद होना होता।

अपनी अकड़, अपने तेवरों और अपनी खूबियों-खामियों के साथ गांव इस अखबार में मौजूद है। गांव के लोगो के लिए भले ही सरकार ने रर्बन मिशन शुरू किया है, यानी गंवई इलाको में शहरी सुविधाएं उपलब्ध करने का। केन्द्र सरकार ही नहीं, देश के हर राज्य में गांवों के लिए और गांव के लोगों के लिए योजनाएं बनती हैं। कभी पीने के पानी के लिए, कभी सिंचाई के लिए, कभी रोजगार के लिए तो खेती के लिए...लेकिन उन योजनाओं के लागू करने में हुई देरी या मान लीजिए कामयाबी ही, उनकी खबर को कौन छापता-दिखाता है?

मुख्यधारा की मीडिया पर गांव तभी आता है, जब कोई कुदरती आपदा हो, या कोई बड़ी घटना हो जाए। लेकिन अमूमन किसान आत्महत्याओं जैसी बड़ी और त्रासद घटनाएं भी बगैर नोटिस के रह जाती हैं। दिल्ली से या बड़े शहरों से गांव रिपोर्टिंग करने वाले लोग आखिर खबर क्या ढूंढते हैं और क्या छापते हैं। और ग्रामीण विकास की रिपोर्ट के लिए मंत्रालय की पहलों, खामियों और कामयाबियों पर रिपोर्टें दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में बैठकर छाप दी जाती हैं।

गांव का मतलब इनमें से ज्यादातर मीडियावालों के बीच खेती-बाड़ी ही है। समस्या है, लेकिन क्या गांव के लोग सिर्फ खेती ही करते हैं?

अगर दूरदर्शन को छोड़ दें, तो मुख्यधारा की मीडिया से या सिनेमा से ओरिजिनल गांव गायब था और इसी परिदृश्य में गांव कनेक्शन ने अपनी अभिनव शुरूआत की थी। गांव कनेक्शन के इस सार्थक पहल, जिसकी नकल अब कई मीडिया हाउस कर रहे हैं, के बारे में आज इसलिए चर्चा क्योंकि मेरा यह स्तंभ मेरा सौवां स्तंभ है और हाल ही में स्वयं फेस्टिवल में हिस्सा लेने के बाद मैं यूपी के चौदह जिलों में आयोजित स्वयं फेस्टिवल की कामयाबी से आश्चर्य-मिश्रित सुख से आह्लादित भी हूं।

ऐसे में, गांव की कहानियां सबके सामने आ रही हैं, सरकार इस अखबार में छपी खबरों को संज्ञान लेकर गांव के लोगों की समस्याओं का निपटारा कर रही है। गांव कनेक्शन इस अर्थ में एक अखबार होने के साथ, जो गांव के लोगों को गांव-जवार और दुनिया-जहान की खबरें देता है, उनकी समस्या को सही दरवाज़े तक पहुंचाने के उम्मीद के केन्द्र के रूप में उभरा है।

वक्त की रेखा में चार साल कुछ नहीं होता, खासकर अगर वह कोई अखबार हो।

कई दशक पुराने पीत और प्रेत-पत्रकारिता करने वाले अखबारों को ठीक है कि अपने लीक पर चलते रहना चाहिए, क्योंकि इसके पीछे उनकी व्यावसायिक मजबूरियां भी होंगी, लेकिन अपनी सामग्री में अगर वह दस फीसद भी गांव कनेक्शन के स्तर की खबरें शामिल कर सकें, तो यह उन अखबारों की विश्वसनीयता में इजाफा तो करेगा ही, गांव के लोगों को भी आबादी के हिसाब से अपना प्रतिनिधित्व मीडिया में मिलेगा।

फिलहाल तो, जिस जुनून और जज्बे के साथ, जिस ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करके गांव कनेक्शन ने चार साल में चार कदम शिखर की तरफ बढ़ाए हैं, मुझे लगता है दूसरे अखबारों के लिए प्रेरणा-स्रोत बना रहेगा।





मंजीत ठाकुर

Saturday, December 10, 2016

भ्रमित विपक्ष का मतिभ्रम

संसद में विपक्ष के हंगामे और गतिरोध पर आखिरकार राष्ट्रपति को भी बोलना ही पड़ा। अमूमन राष्ट्रपति ऐसी परिस्थितियों में सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहते, लेकिन जिस तरह से संसद की गतिविधि थम सी गई थी, और विपक्ष अपनी मांग पर अड़ गया था, उससे लगा था कि यह पूरा सत्र बर्बाद ही न चला जाए।

लेकिन नोटबंदी के मुद्दे पर संसद में लगातार हो रहे हंगामे से एक बार फिर से संसदीय लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका को लेकर बहस शुरू हो गई है। वैसे माना यह जाता है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। यह बात भी बहसतलब है, और इसको बदलने को लेकर भी विवाद हो सकते हैं, लेकिन यह तय है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ-साथ मजबूत और रचनात्मक विपक्ष का होना जरूरी है। यानी, लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि विपक्ष वैसा हो जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करे, जनहित से जुड़े मुद्दों पर सवाल करे, बहस शुरू करे। अपने लोकतंत्र ने पिछले सत्तर साल में विपक्ष की इस भूमिका को कई दफा देखा है। आपातकाल के दौरान एकजुट विपक्ष ने इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता को अपने इरादों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिआ था।

राजीव गांधी के शासनकाल में जब बोफोर्स जैसा बड़ा घोटाला उजागर हुआ था तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी थी और फिर पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनाया था। यह बात और है कि उस वक्त लोकसभा चुनाव के में उनको जनादेश नहीं मिला और जनता दल बहुमत से दूर रह गया था। उस वक्त भी विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी समझी थी और जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए राजीव गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी थी। सन 1977 में जनता पार्टीके नाकाम प्रयोग के बाद राष्ट्रीय मोर्चे का यह प्रयोग नायाब था। विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेफ्ट पार्टियों के साथ भारतीय जनता पार्टी का भी समर्थन मिला था। ऐसी कई मिसालें हमारे संसदीय लोकतंत्र ने पेश की हैं।

विपक्ष की सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वह सरकार की गलत लग रही नीतियों के खिलाफ जनमानस तैयार करे। नीतियों के सही या गलत होने की बात, पूरी इनकी व्याख्या पर निर्भर है साथ ही, किसी भी नीति पर बहस करके उसके व्यापक असर की समीक्षा करना भी विपक्ष का काम है। सरकार के फैसलों और नीतियों को संशोधित करना विपक्ष का ही काम है।

जो भी हो, कमजोर या बंटा हुआ विपक्ष सत्तासीन दल के लिए चाहे जितना मुफीद हो लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक होता है। खासकर, विपक्ष जब अपनी मुखालफत की नीतियों पर ही एक राय नहीं है। ऐसा ही कुछ अभी नोटबदली के मामले पर भी दिख रहा है। लगभग सारे विपक्षी दल सरकार के इस फैसले के क्रियान्वयन की कमियों के खिलाफ हैं लेकिन सभी अपनी-अपनी डफली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। बंटा हुआ विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक दिखाई दे रहा है। आप को भारत बंद के मसले पर वाम दल और ममता, कांग्रेस और सपा-बसपा के अलग सुर तो याद ही होंगे। विपक्षी दलों के विरोध के चलते संसद का कामकाज ठप है लेकिन इससे कुछ रचनात्मक निकलता दिखाई नहीं दे रहा है।

असल में, आज की तारीख में उस धुरी की कमी है, जिसके चारों तरफ विपक्ष एकजुट हुआ करता है। इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, और राहुल गांधी उस धुरी के रूप में उभरने में ज़रूरत से अधिक वक्त ले रहे हैं, जिस पर सभी दलों को भरोसा हो कि वो नेतृत्व दे सकता है।

इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लागू किया था, तब देश में छात्र आंदोलन शबाब पर था और कहा गया कि जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने जिस तरह सरकार के खिलाफ माहौल तैयार किया, उसी से घबराकर इमरजेंसी लगाई गई। फिर पूरा विपक्ष जेपी के आसपास इकट्ठा हुआ और आपातकाल के हुए चुनाव में कांग्रेस ढेर कर दी गई थी।

उसके बाद कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सभी दलों में अपनी साख की वजह से एक भरोसा पैदा किया, तो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत इस धुरी के रूप में उभरे। इस वक्त वैसा कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है जो विपक्षी दलों के लिए एक छाते की तरह उभर पाए, और जिसकी शख्सियत पर तमाम दलों को भरोसा हो।

राहुल गांधी नेता के तौर पर अभी भी नौसिखिए लगते हैं, और उनमें अभी वो बात पैदा नहीं हो पाई है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता उनका नेतृत्व ना भी स्वीकार करें तो कम से कम उनकी बात तो मानें। बीजेपी इस मौके को बखूबी भुना रही है। हर मौके पर विपक्ष की कमजोरियां खुलकर सामने आ रही हैं। जनता में यह संदेश जा रहा है कि सरकार के अच्छे कामों में विपक्ष की बेफालतू अड़ंगेबाज़ी हो रही है। मैंने पंजाब से लेकर यूपी के गांवो तक देखा, लोग यही कह रहे हैं कि विपक्ष नोटबदली का सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहा है।

वैसे, अंतरराष्ट्रीय निवेश और बाज़ार के लिए मजबूत सरकारें बढ़िया मानी जाती हैं। इस लिहाज़ से तो सब ठीक है। लेकिन मजबूत सरकार का मतलब कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष नहीं होता। सदन में स्पीकर की वेल के सामने आकर हूटिंग करना और कामकाज रोकना भले ही, विपक्ष की रणनीति का हिस्सा हो, लेकिन हर रणनीति कामयाब सिय़ासी पैंतरा ही हो, यह भी सही नहीं है। विपक्ष को अपने जिद पर फिर से विचार करना चाहिए।

मंजीत ठाकुर

Saturday, December 3, 2016

थोड़ी चिंता खाद की भी कीजिए

अपने देश की खेती-बाड़ी में जो बढ़ोत्तरी हुई है, जो हरित क्रांति हुई है उसमें बड़ा योगदान रासायनिक उर्वरकों का है। हम लाख कहें कि हमें अपने खेतों में रासायनकि खाद कम डालने चाहिए-क्योंकि इसके दुष्परिणाम हमें मिलने लगे हैं—फिर भी, पिछले पचास साल में हमारी उत्पादकता को बढ़ाने में इनका योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन, अभी भी प्रमुख फसलों के प्रति हेक्टेयर उपज में हम अपने पड़ोसियों से काफी पीछे हैं। मसलन, भारत में चीन के मुकाबले तकरीबन दोगुना खेती लायक ज़मीन है, लेकिन चीन के कुल अनाज उत्पादन का हम महज 55 फीसद ही उगा पाते हैं। इसका मतलब है उत्पादन के मामले में हम अभी अपने शिखर पर नहीं पहुंच पाए हैं।

इसी के साथ एक और मसला है जिसपर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, वह है कि क्या हम रासायनिक खादों का समुचित इस्तेमाल करते हैं? आज की तारीख़ में भारत रासायनिक खादों की खपत करने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लेकिन देश के उत्पादन में मदद करने वाला यह उद्योग आज कराह रहा है।

देश में नियंत्रित रासायनिक खादों की कीमते साल 2002-03 के बाद से संशोधित नहीं की गई हैं। पिछले वित्त वर्ष में सरकार पर उर्वरक कंपनियों का बकाया करीब 43 हज़ार करोड़ रूपये था। लेकिन इस बार अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी की वजह से आज की तारीख में इस उद्योग का करीब 30 बज़ार करोड़ रूपये सरकार पर बकाया है, जो मार्च में वित्त वर्ष खत्म होने तक करीब 40 हजार करोड़ तक चला जाएगा।

यूरिया खाद की कीमतें और सब्सिडी अभी भी डेढ़ दशक पुराने हैं। हालांकि, साल 2014 के अप्रैल से यूरिया के प्रति टन पर 350 रूपये की बढ़ोत्तरी की गई थी। लेकिन यह वृद्धि सिर्फ वेतन, अनुबंधित मजदूरों, विक्रय के खर्च और मरम्मत जैसे कामों के मद में की गई थी। जाहिर है, लागत पर इसका असर नहीं होना था। इस नीति के तहत, न्यूनतम कीमत 2300 रूपये प्रति टन स्थिर किया गया। लेकिन इसके तहत अभी तक कंपनियों को भुगतान नहीं किया गया है।

साल 2015 में नई यूरिया नीति भी सामने आई। इसमें फॉर्म्युला लाया गया कि ऊर्जा के खर्च और तय कीमतों के मद में ही पुनर्भुगतान किया जाएगा। बहरहाल, साल 2015-16 में यूरिया का 40 लाख टन अतिरिक्त उत्पादन किया गया। देश में यूरिया की कमी नहीं हुई। यह बड़ी खबर थी। लेकिन कंपनियों के अधिकारी अब शिकायत कर रहे हैं कि अपनी क्षमता के सौ फीसद से अधिक किए गए उत्पादन पर उन्हें प्रति टन महज 1285 रूपये का भुगतान किया गया।

अब उर्वरक कंपनियां सरकार के सामने अपनी मांग लेकर जा रही हैं कि वह उर्वरक सेक्टर में सब्सिडी को जीएसटी से अलग रखे। क्योंकि अगर सब्सिडी को जीएसटी से अलग नहीं रखा जाएगा तो इससे कीमतें बढ़ानी पड़ेगी। यानी, 5-6 फीसद से अधिक की जीएसटी की दर से उर्वरकों की उत्पादन लागत बढ़ जाएगी, जिसे बाद में या तो सरकार को या फिर किसानों को वहन करना होगा।

उर्वरक कंपनियां सरकार द्वारा दिए जाने वाले प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) पर भी एतराज़ जता रहे हैं। कंपनियों के आला अधिकारी कह रहे हैं कि रासायनिक खादों में दिए जाने वाले सब्सिडी को कंपनियों के ज़रिए ही दिया जाए क्योंकि घरेलू गैस की तरह सीधे किसानों के बैंक खातों में दिया जाने वाला लाभ कामयाब नहीं हो पाएगा।

बहरहाल, आने वाले वक्त में, जब किसान नकदी की समस्या से जूझ रहा है और खेतों में आलू की फसल को खरीदार नहीं मिल रहे हैं, इन उर्वरक कंपनियों की मांग रासायनिक खादों की कीमत में इजाफा कर सकते हैं। ऐसे में इन कंपनियों की नज़र उस सब्सिडी पर है जो वह किसानों के नहीं अपने खातों में डलवाना चाहते हैं। अगर सरकार कंपनियों की मांग मानकर डेढ़ दशक पुरानी कीमतों को संशोधित करती है तो खाद की कीमत भी बढ़ सकती है, ऐसे में देश में खेती की लागत एक दफा फिर से बढ़ सकती है।

जो भी हो, किसानों तक निर्बाध रूप से उर्वरकों को पहुंचाने के लिए सरकार कदम तो जरूर उठाएगी। यूरिया की समुचित पर्याप्तता सुनिश्चित करके पिछले बरस एक सकारात्मक कदम दिखा था। कीमतें स्थिर रहें तो किसानों के हिस्से में ज्यादा आएगा।


मंजीत ठाकुर

Thursday, December 1, 2016

नागफ़नी

तपते रेगिस्तान में कैक्टस सीना ताने खड़ा था। गुलाब-केतकी-गेंदे की तरह उसे कभी किसी माली ने खाद-पानी नहीं दिया था, कभी उसकी कटिंग-प्रूनिंग भी नहीं हुई थी। किसी ने कभी जड़ में पानी तक नहीं दिया। वक़्त के साथ कैक्टस के कांटे तीखे हो गए थे। एकदम दरांती की तरह तेज़। और कैक्टस उर्फ नागफनी का फन नाग की तरह ज़हरीला हो गया।

तेज़ धूप, गरम हवा के थपेड़े, अपने ही कांटों से छिला बदन। रेगिस्तान में बारिश कहां होती थी, कभी भी नहीं। लेकिन इधर पता नहीं कहां से काली घटा आई, अपने गीले बालों से उसने कैक्टस को लपेट लिया, बालों से गिरती बूंदो ने कैक्टस को भिंगो दिया।

कैक्टस घटा के आगोश में था, तपती धरती पर गिरी बूंदो से जो सोंधी सुगंध निकली, उसने कैक्टस को मदहोश कर दिया। उसने ज़िंदगी में पहली दफ़ा ऐसी बू सूंघी थी। मेघा बोली, 'प्यारे कैक्टस, अब तेरा सारा ज़हर मेरा, तेरे सारे दर्द मेरे।' मेघा की न(र)मी से कैक्टस का ज़हर धुल गया। कांटे नरम पड़ गए और पत्तियों में बदल गए। कली निकल आई, फूल खिलने ही वाला था कि घटा हवा के साथ ऊपर उठ गई, उठती गई। एकदम आसमान में जाकर सिरस बादलों में तब्दील हो गई...मेरे प्यारे कैक्टस, तुम तो मेरे हीरो हो, अब से तुम कांटो के लिए नहीं, फूलों के लिए जाने जाओगे...अब तुम रेत पर कविताएं लिखा करना।

कैक्टस ने सिर उठाकर देखा, उसकी मेघा हमेशा उसके ऊपर रहने वाली थी, रेगिस्तान में हरा कैक्टस सीना ताने फिर खड़ा हो गया। धूप, लू के थपेड़ों, गरमी...अब किसकी परवाह थी उसे।


Sunday, November 27, 2016

टिकाऊ विकास से बचेंगी भावी पीढ़ियां

टिकाऊ विकास से बचेंगी भावी पीढ़ियां, यह समझना ज़रूरी कि हम सारे संसाधन खुद ही खर्च कर देंगे या कुछ बचाकर भी रखेंगे। 
मंजीत ठाकुर



इस वक्त जब पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर खास चिंताएं हैं, और हाल ही में दुनिया भर ने दिल्ली में फैले दमघोंटू धुएं का कहर देखा, एक दफा फिर से आबो-हवा की देखभाल और उसकी चिंताएं और उससे जुड़े कारोबार पर गौर करना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है।

सबसे बड़ी बात कि हम लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या संसाधन छोड़कर जाने वाले हैं? क्या हम उनको प्रदूषित पानी, बंजर ज़मीन और सांस न लेने लायक हवा की सौगात विरासत के रूप में देने वाले हैं? शायद इसीलिए जानकार टिकाऊ विकास या सतत विकास की बात करते हैं ताकि हम प्रकृति से जितना लें, उसे उतना ही वापस करें। आखिर, एक दिन जब धरती की कोख में समाया सारा कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस का ख़ज़ाना खत्म हो जाएगा, तब ऊर्जा की हमारी ज़रूरतें कहां से पूरी होंगी? हम लोग क्लीन एनर्जी यानी स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों में क्या हासिल कर पाएं हैं और वह तकनीकें आम जनता की जेब की ज़द में हैं भी या नहीं।

असल में, ऐसा नहीं है कि सरकारें कोशिश नहीं करती। दिक्कत हमारे विभिन्न मंत्रालयों (और विभागों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच नीतियों में समन्वय की कमी की है।

पिछले कई दशकों से आर्थिक विशेषज्ञ अर्थनीति-जिसे विचित्र रूप से एकआयामी दृष्टिकोण के बावजूद, विज्ञान कहा जाता है-की भाषाओं में गुड और बैड मनी की परिभाषाएं देते रहे हैं। ऐसे उद्योग, जो संसाधनों का दोहन करते हैं और आबो-हवा को प्रदूषित, लेकिन फायदे में चल रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, उन उद्योगों को लाभकारी उद्योग कहा जाता है, जबकि ऐसे काम जिसमें पर्यावरण और आम इंसान की सेहत का खयाल भी रखते हैं लेकिन कारोबार के नजरिए से जो पैसे नहीं बनाते, वह बैड इकॉनमी के तहत आते हैं। आह! इस नज़रिए से देहातों में अच्छी सड़कें बनाना, जाहिर है, अच्छा है और वनों को संरक्षित करना बुरी आर्थिकी है।

यानी व्यवस्था पिछले तीस बरसों में आर्थिक चश्में से ही हर काम को देखती आई है।

संविधान के तहत, भारत का हर नागरिक प्राकृतिक संसाधनों से मिलने वाले लाभों, खासकर पारिस्थितिकी-वन-ज़मीन और मिट्टी से जुड़ी चीज़ों के सामाजिक फायदों और सेवाओं में बराबर का हक़दार है।

संविधान प्रदत्त इस न्याय व्यवस्था की बुनियादी बात ही यह है कि कोई आर्थिक क्रियाकलाप कम-से-कम ऐसी ही हो जिससे कोई नुकसान न पहुंचे, और सामान्य तौर पर इस तरह से संपन्न की जानी चाहिए कि इससे किसी को नुकसान न पहुंचे, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठे। ऐसी व्यवस्था यह तय करने के लिए बनाई गई थी कि समाज और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर पड़े वंचित तबके को इसका अधिक फायदा मिले।

विकास की किसी भी गतिविधि की योजना ऐसी बननी चाहिए कि जल-जंगल-जमीन जैसे कुदरती संसाधन संरक्षित किए जा सकें और उनका इस्तेमाल इस तरह हो कि वह टिकाऊ विकास के खांचे में फिट बैठ सकें और उनको भावी पीढ़ियों के लिए बचाया जाए। इस योजना में यह भी तय किया जाना चाहिए कि इन गतिविधियों में काम करने वाले या उसके आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ न हो।

टिकाऊ विकास विज्ञान अभी बहुत नया है, यह सोच और अवधारणा नई है फिर भी यह इतनी साफगोई से कई बातें बताता है जिनमें समाज में बराबरी की अवधारणा भी है। यह सरल उपाय सुझाता है। यह किसी भी समाज में महिलाओं की स्थिति, सभी लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और औसत आयु जैसे मानकों की गणना करके समस्या के उपाय बताता है, जिसे जानकार गिनी कोएफिशिन्ट कहते हैं।

ऐसी चीजें जिनके दोबारा बनने में बहुत अधिक वक्त लगता है, मसलन जंगल, ज़मीन और मिट्टी जैसे कुदरती संसाधनों का अत्यधिक दोहन आने वाली पीढ़ियों के लिए कई विकल्प खत्म कर सकता है। इन पीढ़ियों को यह कुदरती संसाधन उन्हीं रूपों में चाहिए होंगे, जैसे कि हमें मिले थे। धरती पर आबादी के बढ़ते बोझ के बाद तो यह ऐसे भी ज़रूरी होगा।

हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियों के साइंसदां हमारे इन कुदरती संसाधनों के खत्म होने का कोई तोड़ निकाल लें, लेकिन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इन संसाधनों को बहुत जरूरत होगी। जैसे कि जल चक्र के लिए जंगल चाहिए और पानी के साथ ही मिट्टी की ज़रूरत हमारे अनाजों के लिए हमेशा रहेगी। क्यों न हम अपनी भावी पीढ़ियों की ऊर्जा को किसी ज्यादा बेहतर काम के लिए बचाने पर जोर दें, और जल-जंगल-जमीन को खुद बचाने का बंदोबस्त करें, वह भी पुख्ता बंदोबस्त।


Tuesday, November 22, 2016

मैं हमेशा नहीं रहूंगा

तुम साथ रहोगे न हमेशा?
नहीं, तुम हमेशा नहीं रहोगे।

सूरज, धरती, चांद, सितारे
और भी जो हैं जगमग सारे
और सपनों की भी होती है एक उम्र।

साइंसदां कहते हैं सूरज हो या कोई भी तारा,
या खुद अपनी ही धरती
सब एक महाविस्फोट से हुए थे पैदा
और सबकी उम्र होती है

हर चीज़ एक दिन फ़ना हो जानी है

एक दिन दहकता सूरज भी
गुल हो जाएगा
जब इसके अंदर इसको जलाने वाली गैसें चुक जाएंगी
तब यह भी
धरती के आकार के हीरे में बदल जाएगा

और जानती हो न तुम
हीरा होता है कितना कठोर,
कितना चमकदार,
कितना निर्मम-निष्ठुर
और हीरे को चमकने के लिए भी
चाहिए होती है दूसरों की रौशनी

हां,
यह मैं हमेशा नहीं रहूंगा
लेकिन न हवा रहेगी
न पानी होगा
न कुछ और बचेगा
सोचो की प्रोटोन तक को जिंदगी की मिली है तय मियाद

इस जीवन में कुछ भी शाश्वत नहीं है।

मैं भी तुम्हारे ईश्वर की तरह नश्वर ही हूं
मैं हमेशा नहीं रहूंगा।

मंजीत ठाकुर

Saturday, November 19, 2016

बेपानी सियासत में पानी की राजनीति

चुनावी वक्त में पानी की तरह रूपया ज़रूर बहाया जाता है लेकिन पानी को पानी की ही तरह बहाना मुद्दा है। ताजा विवाद पंजाब बनाम हरियाणा का है, जहां मसला सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद गहरा गया। शीर्ष अदालत ने पंजाब सरकार को बड़ा झटका देते हुए सतलज का पानी हरियाणा को देने का आदेश दिया था। लेकिन, गुरूवार यानी 17 नवंबर को उच्चतम न्यायालय पंजाब द्वारा सतलुज-यमुना संपर्क नहर के लिए भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने के शीर्ष अदालत के अंतरिम आदेश का कथित उल्लंघन करने के मामले में हरियाणा की याचिका पर 21 नवंबर को सुनवाई के लिए सहमत हो गया।

अदालत के सामने हरियाणा सरकार के वकील ने इस याचिका का उल्लेख करते हुए इस पर तुरंत सुनवाई का अनुरोध किया था। हरियाणा का कहना था कि नहर परियोजना के निमित्त भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने का पंजाब सरकार को निर्देश देने संबंधी ऊपरी अदालत के पहले के आदेश का हनन करने के प्रयास हो रहे हैं।

हाल ही में पंजाब सरकार ने इस परियोजना के निमित्त अधिग्रहीत भूमि को तत्काल प्रभाव से अधिसूचना के दायरे से बाहर करने और इसे मुफ्त में इसके मालिकों को लौटाने का फैसला किया था। राज्य सरकार का यह निर्णय काफी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि न्यायमूर्ति दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने पिछले सप्ताह पंजाब समझौता निरस्तीकरण, 2004 कानून को असंवैधानिक करार दिया था। इस कानून के जरिए ही पंजाब ने हरियाणा के साथ जल साझा करने संबंधी 1981 के समझौते को एकतरफा निरस्त कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी राय में कहा था कि पंजाब समझौते को ‘एकतरफा’ निरस्त नहीं कर सकता है और न ही शीर्ष अदालत के निर्णय को ‘निष्प्रभावी’ बना सकता है।

वैसे, पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज यमुना के जल-बंटवारे को लेकर विवाद पचास साल से भी ज्यादा पुराना है। पंजाब सरकार का पक्ष है कि उनके सूबे में भूमिजल स्तर बेहद कम है। अगर पंजाब ने सतलुज-यमुना नहर के जरिए हरियाणा को पानी दिया तो पंजाब में पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। वहीं हरियाणा सरकार सतलुज के पानी पर अपना दावा ठोंक रही है।

चुनावी वक्त में पानी ने पंजाब की राजनीति को गरमा दिया है। इस मुद्दे पर पंजाब के विधायकों और कुछ सांसदो ने इस्तीफे का दौर भी चला।

दरअसल, इस विवाद की शुरूआत तो सन् 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के साथ ही हो गई थी। इसी साल हरियाणा राज्य का गठन हुआ था। लेकिन पंजाब और हरियाणा के बीच नदियों के पानी का बंटवारा तय नहीं हो पाया था।

उस वक्त, केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके तहत कुल 7.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) में से 3.5 एमएएफ पानी हरियाणा को दिया जाना था। इसी पानी को हरियाणा तक लाने के वास्ते सतलुज-यमुना नहर (एसवाईएल) बनाने का फैसला हुआ। इस नहर की कुल लम्बाई 212 किलोमीटर है।

हरियाणा को पानी की जरूरत थी, सो उसने अपने हिस्से की 91 किलोमीटर नहर तयशुदा वक्त में पूरी कर ली। लेकिन, पंजाब ने अपने हिस्से की 122 किमी लम्बी नहर का निर्माण को अभी तक लटकाए रखा है। यही नहीं, पंजाब ने इसी साल यानी 2016 के मार्च में नहर निर्माण के लिए अधिग्रहीत ज़मीनें किसानों को वापस करने का फैसला कर लिया। इसका एक मतलब यह भी है कि पंजाब ने हरियाणा को पानी न देने की अपनी नीयत साफ कर दी।

नतीजतन, हरियाणा सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। शीर्ष अदालत ने पंजाब को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। लेकिन अब इस मामले पर अन्तिम फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने नहर का निर्माण को पूरा करने का फैसला सुना दिया है।

हालांकि इसी तरह के रोड़े अटकाए जाने के दौरान अदालत 1996 और 2004 में भी यही फैसला सुना चुकी है। इस दौरान कांग्रेस और अकाली दल भाजपा गठबन्धन की सरकारें पंजाब में रहीं, लेकिन नहर के निर्माण को किसी ने गति नहीं दी। मसलन एक तरह से न्यायालय के आदेश की अवमानना की स्थिति बनाई जाती रही।

ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिशें नहीं हुईं। 31 दिसंबर, 1981 को केन्द्र सरकार ने पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक इसी मसले पर बुलाई थी। बैठक में रावी-व्यास नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता का भी अध्ययन कराया गया।

इस समय पानी की उपलब्धता 158.50 लाख एमएएफ से बढ़कर 171.50 लाख एमएएफ हो गई थी। इसमें से 13.2 लाख एमएएफ अतिरिक्त पानी पंजाब को देने का प्रस्ताव मंजूर करते हुए तीनों राज्यों ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे। शर्त थी कि पंजाब सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाएगा। काम को तेज़ी के लिए तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 अप्रैल, 1982 को पटियाला जिले के कपूरी गाँव के पास नहर की खुदाई का भूमि-पूजन भी किया। लेकिन तभी सन्त लोंगोवाल की अगुआई में अकाली दल ने नहर निर्माण के खिलाफ धर्म-युद्ध छेड़ दिया। नतीजतन पूरे पंजाब में इस नहर के खिलाफ एक आंदोलन जैसी स्थिति पैदा हो गई।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव-लोंगोवाल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। जिसकी शर्तों में अगस्त 1986 तक नहर का निर्माण पूरा करने पर सहमति बनी। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में प्राधिकरण गठित किया गया, जिसने साल 1987 में रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी को पंजाब और हरियाणा दोनों ही राज्यों में बांटने का फैसला लिया। लेकिन यह फैसला भी ठंडे बस्ते में चला गया।

जब पंजाब के मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला था, तो उन्होंने राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत नहर का काम शुरू करवा दिया, लेकिन फिर पंजाब में उग्रवादियों ने नहर निर्माण में काम करने वाले 35 मजदूरों का नरसंहार कर दिया। बाद में नहर के दो इंजीनियरों की भी हत्या कर दी गई। इसके बाद काम रूक गया।

1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह ने केन्द्र सरकार की मदद से नहर का अधूरा काम किसी केन्द्रीय एजेंसी से कराने की पहल की। सीमा सड़क संगठन को यह काम सौंपा भी गया, किन्तु शुरू नहीं हो पाया। मार्च 2016 में तो पंजाब ने सभी समझौतों को दरकिनार करते हुए नहर के लिये की गई 5376 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को निरस्त करने का ही फैसला ले लिया।

लेकिन पंजाब में सियासी दल जिस तरह के रूख पर अड़े हैं, उससे यह कावेरी मसले की तरह के विवाद में बने रहने की ही आशंका है। लगता नहीं कि यह मुद्दा फौरी तौर पर सुलझ भी पाएगा।

एक बात साफ है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में सियासतदानों की नज़रें सिर्फ वोटों पर ही हैं, समावेशी विकास में पंजाब और हरियाणा एक साथ नहीं आ सकते, यह बात भी स्पष्ट हो रही है।




मंजीत ठाकुर

Thursday, November 17, 2016

सोनम गुप्ता बेवफ़ा क्यों है...

जब इंसान के हाथ में नोट ही न हों, पता लगे कि आपके पास के 86 फीसद, अरे साहब वही 5 सौ और हजार वाले नोट, अब सब्जीवाले, चायवाले, कपड़ेवाले, धोबी, बढ़ई वगैरह-वगैरह नहीं लेंगे। आपको इस साल के खत्म होने से पहले अपने सारे ऐसे नोट बैंक में वापस धर देने हैं, उसके बदले नए कलदार निकारने हैं। आपके मोबाइल में देश से काला धन को जड़ से खत्म कर देने के देशभक्त संकल्प आ-जा रहे हैं, आप ऊर्जा से भरे हैं और प्रधानमंत्री के आदेशानुसार अपने पास पड़े चार हज़ार के बड़े नोटों को चिल्लर में बदलवाने बैंक जा रहे हैं। आपको उम्मीद है कि आप जाएंगे और बैंक मैनेजर फूलों के हार के साथ आपका स्वागत करेगा।

आपकी पत्नी आपसे, सरकार से, प्रधानमंत्री से नाराज़ है क्योंकि उनने आपके पर्स से, अपनी कमाई से, रक्षाबंधन और भैया-दूज में नेग में मिले पैसों को संभालकर और आपसे छिपाकर रखा था, क्योंकि महंगाई के इस दौर में आप कभी भी उनकी बचत पर बुरी दृष्टि फेर सकते थे। लेकिन आपकी पत्नी, मां, दादी का यह चोरअउका धन, या स्त्रीधन बैंक में वापस करना जरूरी हो गया।

बहरहाल, देश को बचाने की खातिर आम आदमी इतना त्याग तो कर ही सकता है। आप बैंक में पैसा जमा नहीं कर पा रहे। सुबह से कतार में खड़े आपकी हिम्मत दुपहरिया आते-आते जवाब दे जाती है। देशभक्ति की चाशनी की मिठास थोड़ी कम हो जाती है और चाय की दुकान पर एक दस रूपये के नोट पर एक धुंधली-सी लिखावट पर आपकी नज़र जाती हैः सोनम गुप्ता बेवफा है।

उसी वक्त आपके वॉट्स-एप, आपका ट्विटर, फेसबुक, अखबार, वेबसाइट्स हर जगह सोनम गुप्ता के बेवफा होने की बातें नुमायां होने लगती हैं।

हम सोचते रह जाते हैं यह मुई सोनम गुप्ता है कौन, और यह बेवफा क्यों है?

अब हिन्दुस्तान में लोगों को नोटों पर कुछ न कुछ लिखने की आदत है। हम उम्मीद करते हैं कि यह जो नोट हम खर्च कर रहे हैं वह कभी-न-कभी हम तक वापस आएगा। हम बड़े प्यार से उस पर अपना नाम लिख देते हैं। कुछ वैसे ही, जैसे पुरानी इमारतों, धरोहर साबित की जा चुकी चट्टानों और मंदिरों की दीवारों पर हम अपनी प्रेमिका, या मुहल्ले की उस लड़की का नाम लिख डालते हैं जिसे हम दिलो-जान या किडनी-गुरदे-फेफड़े से प्यार करते हैं, और कभी-कभार तो लड़की को इस बात का इल्म तक नहीं होता।

दिलजले आशिकों के ऐसे इजहारे-इश्क या भड़ास निकालने की अदा देश में बहुत पुरानी है। विदेशों में इसका चलन है या नहीं, और अगर है तो किस हद तक है, इस पर कोई विश्वसनीय सूचना नहीं है।

लेकिन नोटबंदी के इस दौर में मुझे पूरा यकीन हो गया कि हमारा देश ऐसे खुराफातियों से भरा हुआ है, जो मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। और इन कुछ भी कर गुजरने वालों ने सोनम गुप्ता की बेवफाई का क्या खूब सहारा लिया।

सोनम गुप्ता को बेवफा बताने वाले और फिर उसी की तरफ से –मैं नहीं बेवफा—की तर्ज़ पर दूसरे नोटों को सोशल मीडिया पर किसने उछाला? यह वही वर्ग है जो बाथरूम साहित्यकार है और जम्मू से कन्याकुमारी तक, हर जगह फैला है।

नोटों की बात छोड़िए, आपने हिन्दुस्तान के हर कोने में चल रही ट्रेनों के टॉयलेट, प्रतिष्ठित इलाकों की इमारतो की लिफ्ट, सीढ़ियों, दीवारों समेत हर सार्वजनिक प्रतिष्ठान के शौचालयों में लेखन करने वालों पर कभी गौर किया है?

भोपाल हो या गोहाटी, अपना देश अपनी माटी की तर्ज़ पर टॉयलेट साहित्यकार पूरे देश में फैले हैं। मैं उन लेखकों की बात कर रहा हूं, जो नींव की ईंट की तरह हैं। जो कहीं छपते तो नहीं, लेकिन ईश्वर की तरह हर जगह विद्यमान रहते हैं। सुलभ इंटरनैशनल से लेकर सड़क किनारे के पेशाबखाने तक, पैसेंजर गाड़ियों से लेकर राजधानी एक्सप्रेस तक, तमाम जगह इनके काम (पढ़ें, कारनामे) अपनी कामयाबी की कहानी चीख-चीखकर कह रहे हैं।

देश के ज्यादातर हिस्सों में ज्यों हि आप किसी टॉयलेट में घुसते हैं, अमूमन बदबू का तेज़ भभका आपके नथुनों को निस्तेज और संवेदनहीन कर देता है। फिर आप जब निबटने की प्रक्रिया में थोड़े रिलैक्स फील करते हैं, तो आप की नज़र अगल-बगल की गंदी या साफ-सुथरी दीवारों पर पड़ती है, वहां आपको गुमनाम शायरों की रचनाएं दिखेंगी (आप चाहें तो उसे अश्लील या महा-अश्लील मान सकते हैं)। कई चित्रकारों की भी शाश्वत पेंटिंग्स दिखेंगी।

कितना वक्त होता है! इन डेडिकेटेड लोगों के पास! कलम लेकर ही टॉयलेट तक जाने वाले लोग। जी करता है उनके डेडिकेशन पर सौ-सौ जान निसार जाऊं। इन लोगों के बायोलजी का नॉलेज भी शानदार होता है... तभी ये लोग दीवारों पर उसका प्रदर्शन भी करते हैं।

पहले माना जाता था कि ऐसा सस्ता और सुलभ साहित्य गरीब तबके के सस्ते लोगों का ही शगल है। इसे पटरी साहित्य का नाम भी दिया गया था। लेकिन बड़ी खुशी से कह रहा हूं आज कि इनका किसी खास आर्थिक वर्ग से कोई लेना-देना नहीं है। कोई वर्ग-सीमा नहीं है। अपना अश्लील सौंदर्यशास्त्र बखान करने की खुजली को जितना छोटे और निचले तबके के सिर मढ़ा जाता है, सच यही है कि उतनी ही खाज कथित एलीट क्लास को भी है।

तो जब तक अपने प्रेम के प्रकटन का यही पैसिव तरीका इस देश में रहेगा, दीवारों से लेकर नोटों तक कोई सोनम गुप्ता बेवफा होती रहेगी। मुहल्लों में जब तक प्रेम जीवित रहेगा, छींटाकशी भी, और इनकार भी, तब तक देश में सोनम गुप्ताएं बेवफा होती रहेंगी।




मंजीत ठाकुर

Saturday, November 12, 2016

ज़रूरी है धुएं की लकीर पीटना

दिल्ली में ज़हरीला कोहला हटने या छंटने के हफ्ते भर बाद मैं अगर इसकी बात करूं, तो आप ज़रूर सोचेंगे कि मैं सांप निकलने के बाद लकीर पीटने जैसा काम कर रहा हूं। लेकिन, यकीन मानिए, प्रदूषण एक ऐसी समस्या है, जिसमें चिड़िया के खेत चुग जाने जैसी कहावत सच भी है, लेकिन देर भी नहीं हुई है।

अब जरा गौर कीजिए, दिल्ली में दीवाली की रात के बाद, अगली सुबह से ही घना स्मॉग छाया रहा, लेकिन इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार की कैबिनेट बैठक ठीक सातवें दिन हुई। दिल्ली सरकार जागी भी तब, जब अदालत, केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय, दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने उसे कसकर झाड़ लगाई।

यह ठीक है कि प्रदूषण के मसले पर दिल्ली सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती। न तो वह लोगों को पटाखे और आतिशबाज़ियों से रोक सकती है न पंजाब-हरियाणा से आने वाले पराली के धुएं को। लेकिन दिल्ली में—और देश के हर हिस्से में—दीवाली हर साल आती है, आतिशबाज़ियां हर साल होती है, पंजाब-हरियाणा के किसानों ने अपने खेतों में धान की फसल की खूंटियां या ठूंठ पहली बार नहीं जलाए थे, तो इस परिस्थिति में जो कदम केजरीवाल सरकार ने प्रदूषण भरे खतरनाक और ज़हरीले हफ्ते के बाद उठाने की घोषणा की, वह दीवाली से हफ्ते भर पहले भी कर सकती थी।

मिसाल के तौर पर, सरकार ने स्कूलों को बंद कर दिया। लेकिन, सरकार स्कूली बच्चों में पटाखे न चलाने की जागरूकता फैला सकती थी। दिल्ली सरकार ने कहा कि इलाके में निर्माण कार्य अगले पांच दिन तक बंद रहेंगे और तमाम डंपिंग ग्राउंड से निकलने वाले धुएं पर नज़र रखी जाएगी। यह कदम दीवाली से पहले उठाए जा सकते थे और सच तो यह है कि केजरीवाल ने इस प्रदूषण के लिए सिर्फ पड़ोसी राज्यों से आ रहे धुएं को जिम्मेदार बता दिया। जबकि उपग्रह की तस्वीरों ने साफ कर दिया कि दिल्ली में फैला जहरीले धुएं के महज बीस फीसद हिस्सा ही पड़ोसी राज्यों का है।

मुझसे एक दोस्त ने कहा कि सुबह-सुबह जो धुंध दिल्ली की फिज़ाओं में तैर रहा है वह असल में है क्या। असल में, कोहरा ज़मीन की सतह के आसपास तैर रहा एक तरह का बादल ही है। भौगोलिक परिभाषाओं के तहत देखें तो यह दो तरह से बनते हैं। अव्वल, जब गर्म हवा नम सतह के ऊपर से गुज़रती है तो कोहरा बनता है। ऐसा समुद्री किनारों के आसपास के इलाकों में होता है। दोयम, जब धरती की सतह यानी ज़मीन अचानक ठंडी हो जाए तो हवा में मौजूद नमी कोहरे में बदल जाती है। लेकिन इन दोनों ही परिस्थितियों के लिए हवा में आपेक्षिक आर्द्रता यानी हवा में मौजूद पानी या नमी, की मात्रा सौ होनी चाहिए। दिल्ली में यह दोनों ही परिस्थितिया मौजूद नहीं थी। लेकिन याद रखिए, एक तीसरी भी परिस्थिति है, जिसमें हवा में सौ फीसद नमी नहीं होने पर भी कोहरा बन सकता है और वह हैः हवा में धुआं, धूल, एयरोसोल, हाइड्रोकार्बन जैसी चीज़ों का बड़ी मात्रा में मौजूद होना। ऐसे में नमी इसके चारों तरफ जमा होकर पानी की महीन बूंदें बना लेती हैं और धुएं या धूल के चारों तरफ पानी की यह महीन बूंदे हमारी सेहत के लिए बेहद खतरनाक होती हैं। यही स्मॉग है।

इस स्मॉग के चपेट में लंबे समय तक रहने पर अल्पकालिक नुकसान यह है कि आपको आंखों में जलन हो सकती है, गले में खराश, जुकाम जैसा महसूस होना, आंख से लगातार आंसू आने लग सकते हैं। दमे और सांस की बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए स्मॉग बहुत पीड़ादायी भी है और खतरनाक भी। दीर्घकालिक रूप में यह स्मॉग कैंसर पैदा कर सकता है, मांओं की कोख में पल रहे भ्रूण को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकता है।

दीवाली के अगल दिन दिल्ली की हवा में पार्टिक्युलेय मटिरियल 2.5 (यानी हवा में घुले बेहद महीन कणों) की मात्रा 153 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्ल्यूएचओ, का सुरक्षित मानक 6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है। सोचिए, हम और आप दिल्ली की हवा में सांस लेते वक्त करीब 40 सिगरेट रोज़ फूंक रहे है। और हम-आप ही नहीं, आपकी नवजात बच्ची और अस्सी बरस के पिता भी।

वैसे भी, दिल्ली के मौकापरस्त व्यापारियों ने मास्क की कालाबाज़ारी भी शुरू कर दी। पांच रूपये के मास्क साठ रूपये तक बिके। ज्यादा कीमता वाली मास्क की बात ही क्या। कोई हैरत नहीं, कि कुछ लोग साफ हवा की पैकेजिंग शुरू कर दें।

बहरहाल, प्रदूषण दिल्ली का स्थायी चरित्र है। और दिल्ली का ही क्यों, लखनऊ, पटना, बंगलोर हो या बनारस, कानपुर, गाजियाबाद...प्रदूषण ने जीना मुश्किल कर दिया है। इससे निपटने के लिए ऑड-इवन जैसे शेखचिल्ली उपायों पर भरोसा करना ठीक नहीं।

दिल्ली की हवा में धूलकणों की मात्रा काफी ज्यादा होती है। इस पर रोक लगाना जरूरी है। दूसरी तरफ सार्वजनिक परिवहन को विकसित और विस्तारित किए बिना आप वाहनों से निकलने वाले हाइड्रोकार्बन पर रोक लगा नहीं सकते।

दिल्ली जैसे शहर में, जहां फ़ी आदमी एक कार होना, स्टेटस सिंबल हो, शान की बात हो और जहां एक कार में एक आदमी सफर करता हो, वहां वायु प्रदूषण पर रोक लगाना वाकई टेढ़ी खीर है।

पर्यावरण को बचाने के नाम पर हम अधिक पेड़ लगाने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। यकीन मानिए, यह छोटा उपाय है। अधिक हरियाली लेकिन छितराई हुई हरियाली से कुछ ज्यादा भला नहीं होगा। टोटल ग्रीन एरिया बढ़ने का फायदा उतना नहीं होगा। जंगल बचाने होंगे। जंगल ही जैव-विविधता का भंडार भी है और वन्य जीवों का रहवास भी।

दिल्ली हो या देश के बाकी शहर, हवा को बचाइए। अगली दीवाली के लिए, अगली पीढ़ियों के लिए। वरना, किसी को अच्छा नहीं लगेगा जब उसका बच्चा खांसता रहेगा और स्कूल जाने के लिए घऱ से चेहरे पर मास्क लगाकर निकलेगा।

मंजीत ठाकुर

Thursday, November 10, 2016

मंगल ठाकुर की मैथिली कविताः दो

आबहु आऊ अहां अशेष,
बड़ सहलहुं अछि आब कलेष,
मेटल ठोप, बहल दृग अंजन
नहिं आओल अछि किछु संदेश।

बीतल दिन बीतल ऋतु चारि
अंकुर निकसल धरती फारि
पुलकित सब कुंठित हम छी
बाटि तकैत गेल फाटि कुहेस।

स्नेहसिक्त लोचन स्वामी के
आलिंगन दुनू प्राणी के
नयन कलश में भरल अश्रु-जल
पुलकित मन अर्पण प्राणेश।

मूल मैथिली कविताः मंगल ठाकुर

हिन्दी अनुवादः मंजीत ठाकुर

अब आ जाओ मेरे अशेष
सहा न जाए विरह क्लेश
मिटी बिन्दी और बह गए अंजन
मिला न कुछ तेरा संदेश।

बीते दिन, बीते ऋतु चार
हरियाई धरती भी अपार
पुलकित सब, मुझे विरह-विषाद
बाट देखती रहा न शेष।

स्नेहसिक्त लोचन वाले तुम
आलिंगन लोगे कब, सुन तुम
नयन कलश में भरे अश्रु-जल
पुलकित मन अर्पण प्राणेश।








Saturday, November 5, 2016

चीन की चुनौती से निपटने के लिए नेपाल है जरूरी

अठारह साल बाद भारत के किसी राष्ट्रपति की यह नेपाल यात्रा थी। 2 से 4 नवंबर तक हुई यह यात्रा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि चीन ने रणनीतिक तौर पर भारत को घेरने के लिए नेपाल की बिला शर्त मदद करनी र उस पर शिकंजा कसने की तैयारियां शुरू कर दी थीं। इसके बाद, भारतीय मूल के लोगों, जिन्हें नेपाल में मधेसी कहा जाता है, उनमें भी एक बेचैनी का आलाम था क्योंकि नेपाल के मौजूदा संविधान में मधेसियों के हितों की अनदेखी की गई थी।

लेकिन राष्ट्रपति की यह यात्रा किसी समझौते या नई परियोजना के लिए नहीं थी। बल्कि, यह तो राजनीतिक और कामकाजी स्तरों पर नेपाल के साथ भारत के सघन संवाद के विस्तार का एक रूप माना जाना चाहिए।

वैसे भी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नेपाल के लोगों और वहां के राजनीतिक नेताओं के साथ लंबे समय से संबंध रहे हैं और वह ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने नेपाल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और विदेश मंत्री वगैरह पदो पर रहते हुए भारत की तरफ से अहम भूमिका निभाई है।

बहरहाल, काठमांडू में साल 2104 में हुए सार्क सम्मलेन में द्विपक्षीय बातचीत में भारत और नेपाल ने व्यापार, आर्थिक, कनेक्टिविटी, जनसंपर्क और पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए कई नए समझौते किए हुए हैं और राष्ट्रपति का यह दौरा उन संधियों और समझौतों को लागू करने, और परियोजनाओं को तेज़ रफ्तार देने की कोशिश है। भारत की कोशिश है कि जिन संधियों पर पहले हस्ताक्षर हुए हैं, उन्हें वाकई लागू किया जाए।

हालांकि, आपको याद होगा नेपाल के नए संविधान के लागू होने बाद भारत की सरहद को मधेसियों ने विरोध-स्वरूप बंद कर दिया था। असल में, नेपाल के इससे पहले के प्रधानमंत्री के पी ओली की झुकाव चीन की तरफ ज्यादा था। लेकिन, सत्ता परिवर्तन में पुष्प कुमार दहल ‘प्रचंड’ के प्रधानमंत्री बनने के बाद से नेपाल की विदेश नीति में यू-टर्न आया है और वहां पहले की तरह पूर्ववत भारत की ओर झुकाव दिख रहा है। बीते दिनों दहल की भारत यात्रा से दोनों देशों में बर्फ गलनी शुरू हुई।

नेपाल के साथ भारत की डिप्लोमेसी नए सिरे से परवान चढ़ने लगी है। नेपाली राजनीति में चीन की तरफ का झुकाव थोड़ा कम हुआ है। चीन के साथ संबंधों के मद्देनजर भारत अब अपने इस पड़ोसी देश को नए रणनीतिक साझीदार के तौर पर विकसित करने में जुट रहा है।

नेपाल में तीन नई रेल लाइन बिछाने, नए सड़क संपर्क विकसित करने के साथ ही सीमा सुरक्षा का साझा मेकेनिज्म विकसित करने और सैन्य सुरक्षा बढ़ाने पर दोनों देश मसविदा तैयार करने में जुटे हैं।

नेपाल ने अपनी ओर से भारत द्वारा फंडिंग की जा रही उन परियोजनाओं की फेहरिस्त सौंपी है, जो नेपाल के अंदरूनी राजनीतिक हालात के चलते ठंडे बस्ते में चले गए थे। वहां के पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली के दौर में नेपाल का झुकाव चीन की तरफ हो गया था। तब चीन ने अपने यहां से काठमांडो तक रेल नेटवर्क बनाने की परियोजना शुरू की थी।

अब ‘भारत-नेपाल संयुक्त आयोग’ की बैठक के मंच से भारत चार महत्त्वपूर्ण योजनाओं पर काम कर रहा है। बड़ी परियोजना रेल नेटवर्क की है। कोलकाता बंदरगाह से नेपाल के औद्योगिक हब बीरगंज के लिए सिंगल लाइन है, जिस पर मालगाड़ी चलती है। उसे विकसित कर पैसेंजर ट्रेन चलाने लायक बनाने का प्रस्ताव है। नई रेल लाइन नेपाल के बिराटनगर तक बिछाई जा रही है, जिसमें भारत की तरफ का काम पूरा हो चुका है। आगे के लिए नेपाल सरकार को अनुमति देना है। तीसरी रेल लाइन परियोजना का प्रस्ताव है- नेपाल के काकरभिट्टा सीमा से लेकर बंगाल के पानीटंकी इलाके तक।

इसके अलाबा नेपाल में 945 किलोमीटर की ईस्ट-वेस्ट रेल लाइन बिछाने की परियोजना का प्रस्ताव है, जिसके लिए राइट्स समेत तमाम भारतीय एजंसियां अपना शुरुआती काम निपटा चुकी हैं। भारत द्वारा प्रस्तावित बीबीआइएन (भूटान-बांग्लादेश-इंडिया-नेपाल) देशों में रेल और सड़क नेटवर्क के विस्तार के लिए नेपाल में इन योजनाओं को जरूरी माना जा रहा है। विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, हमारा पूरा ध्यान रेल नेटवर्क की ओर है।

भारत की तरफ से सड़क संपर्क, सीमा-पार संपर्क बढ़ाने, सुरक्षा मामलों, सीमा पर सतर्कता, पेट्रोलियम पाइप लाइन बिछाने और नेपाल में भारतीय फंडिंग वाली 4800 मेगावाट की पनबिजली परियोजना के साथ ही कई ऐसे प्रस्तावों पर बातचीत का एजंडा है, जिसकी नेपाल को बेहद जरूरत है। इस एजंडे में महाकाली संधि को लागू करने का मेकेनिज्म विकसित करने का विषय है, जिसके तहत दोनों देशों के बीच जल बंटवारे का फार्मूला तैयार किया जाना है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्परूप के अनुसार, ‘राजनयिक स्तर पर कोशिश है कि सभी प्रस्तावों पर तेजी से काम हो।’

सुस्ता और कालापानी इलाके में इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट बनाने और साझा पेट्रोलिंग का प्रस्ताव भारत ने दिया, जिसे मान लिया गया है। इसकी घोषणा खुद राष्ट्रपति ने की।

लेकिन इस मामले में सबसे अहम रहा, नेपाली छात्रों को आईआईटी में पढ़ने की सुविधा की घोषणा और इसकी प्रवेश परीक्षा अब काठमांडू में भी होगी। जाहिर है भारत ने नेपाल को साथ रखने के लिए उसे सौगातों से लाद दिया है। इसमें भूकंप के दौरान ध्वस्त हुए घरों के निर्माण के लिए 6800 करोड़ की मदद भी शामिल है।

लेकिन भारतीय कूटनयिकों के चेहरे पर खुशी तब दिखी, जब पाकिस्तान का नाम लिए बगैर राष्ट्रपति ने अपने भाषण में कहा कि जिन देशों ने अपनी नीति का हिस्सा आतंकवाद को बना लिया हैं उन्हें अलग-थलग किया जाना जरूरी है। नेपाल के साथ खुली सरहद से आंतकवाद आने का खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसे में नेपाल के उप-प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री समेत तमाम लोगों ने जब कहा कि नेपाल की धरती का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं होने दिया जाएगा, तो इसे भारत की कामयाबी माना जाना चाहिए।

वैसे भी, भारतीय बंदरगाहों से आने वाले दूसरे देशों के सामानों समेत भारत के कारोबार को भी जोड़ दें तो नेपाल का 96 फीसद सामान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत से आता है। ऐसे में नेपाल के लिए भारत अपरिहार्य है और चीन की चुनौती के मद्देनजर नेपाल भारत के लिए।

दोनों साथ चलें, तो दोनो का फायदा है।







Tuesday, November 1, 2016

मौत से मुलाकात का वाकया

वाकया पिछले साल का है। बिहार में चुनाव का दौरे-दौरा था और हम उसी तरह हम भी इलाके में घूम रहे थे। पिछले साल 30 अक्तूबर को दीवाली नहीं थी। दशहरे के बाद का मौसम था..।

मधुबनी में रजनीश के झा से मुलाकात के बाद, और उनके घर में शानदार भोजन के बाद हमने रात दरभंगे में बिताई  और हम सहरसा-अररिया में महादलितों पर आधे घंटे कि स्पेशल स्टोरी के लिए निकल पड़े थे। तारीख थी 30 अक्तूबर की। 

दिन भर शूट करने के बाद हम और आगे निकलते गए। कोसी के कछारों की तरफ...लेकिन शाम 4 बजे ही बूंदा-बांदी शुरू हो गई और अंधेरा छा गया। अब कैमरा नाकाम हो जाने वाला था। अंधेरे में कुछ शूट करना मुमकिन नहीं था। 

फिर हम वापस लौट चले। 

हमें पूर्णिया जाना था क्योंकि 1 नवंबर को पूर्णिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली थी। और वहां से खबरों का पुलिन्दा गिरने की उम्मीद की जा रही थी। बिहार के इस इलाके में आखिरी चरण में मतदान होना था और यह निर्णायक भी था। 

बहरहाल, पूर्णिया का फोरलेन ट्रैक पकड़ने से पहले हम स्टेट हाईवे पर चल रहे थे, और अररिया के पास सात बज गए थे। स्टेट हाईवे बना तो अच्छा है और वाकई अच्छा बना है लेकिन सड़को के किनार साइनेज़ नहीं लगे हैं। यानी आप अगर रात में चल रहे हैं तो आपको क़त्तई गुमान नहीं होगा कि आगे मोड़ है या है भी तो कितना है। अस्तु।

तो साहब, रात के घुप्प अंधेरे में गाड़ी में हम चार लोग थे। मैं, कैमरामैन आरके, कैमरा असिस्टेंट श्रीनिवास और ड्राइवर तिवारी। गाड़ी की स्पीड सत्तर से थोड़ी ऊपर ही। मैं अगली सीट पर बैठना पसंद करता हूं तो नज़र चली ही जाती है स्पीडोमीटर पर।

अब अगले तीन सेकेन्ड की कहानी सुनिएः 

चले जा रहे थे कि अचानक, ड्राइवर ने स्टीयरिंग घुमानी शुरू की, मैंने देखा सामने सड़की में मोड़ है। कितना मोड़ है यह अंदाज़ा नहीं। स्पीड में गाड़ी घूमती ही जा रही थी कि अचानक सामने से ट्रक की हेडलाइट से पता चला कि मोड़ और भी हैं। ट्रक से बचने के लिए ड्राइवर ने स्टीयरिंग को हल्की-सी जुंबिश दी, अपनी तरफ काटा। बस फिर क्या था, गाड़ी कोलतार से नीचे उतरी। कोलतार और मिट्टी में करीब एक फुट का अंतर था। मेरे पैरों के नीचे वाला पहिया नीचे झुका कि बस गाड़ी फिसल गई और ऊपर सड़क से नीचे पंद्र फुट गड्ढे में जा गिरी। 

और सिर्फ गिरी क्यों...एक के बाद एक चार पलटे खाए। मेरी आंखें खुली हुई थीं। स्थिति की नज़ाकत को देखते हुए मैंने विंडो के ऊपर वाले हैंडल को मजबूती से पकड़ लिया और पैर आगे जमा दिए। मुझे लगा कि मैं भी गाड़ी की बॉडी का हिस्सा बन गया हूं। गाड़ी के साथ ही सारी मूवमेंट, बाकी शरीर को गाड़ी से साथ जकड़ दिया। सांस ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे...।

चार बार पलटने के बाद पांचवी बार में गाड़ी की छत नीचे और पहिए ऊपर। 

तीन सेंकेन्ड पूरे। 




मुझे भान हुआ कि मैं एक उलटी हुई गाड़ी में हूं और इंजन अब भी चालू है तो सामने वाली खिड़की के टूटे हुए कांच के रास्ते बाहर आया। कैमरामैन आरके और श्रीनिवास बाहर निकाले। ड्राइवर फंसा हुआ था, उसे भी हमलोगों ने निकाला। 



तब तक ग्रामीणों की भीड़ आ गई थी। मुझे आशंका थी कि गाड़ी में से धुआं निकल रहा है कहीं आग न लग जाए। तो हमने पहले तो सबको किनारे किया। फिर जब आग की आशंका कम हुई तो सबने अपने सामान ढूढे। एक ग्रामीण ने मुझे बताया कि सब सामान इकट्ठा कर लो, नहीं तो लोग ऐसे हैं कि चुरा ले जाएंगे। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है। 


मैं ने खुद को हिला-डुलाकर देखा। मैं सही सलामत था, कंधे पर चोट आई थी जो अब भी बरकरार है। श्रीनिवास की पसलियों चोट थी जो बाद में दिल्ली आकर पता लगा कि फ्रैक्चर था। 

आरके सही सलामत है। उसकी शादी कुछ ही महीनों बाद थी और मुझे उसकी चिंता अधिक थी। 

थोड़े आपे में आए तो हमने अपनी दूसरी टीमों को फोन किया। दफ्तर को बताया सारी अस्पताल में कटी। पूर्णिया में। वहां से विनय तिवारी गाड़ी लेकर आए थे। हमे ले जाने के लिए। हमारा ड्राइवर भी सही सलामत था। 

शुक्र यह रहा कि चोट किसी को बहुत ज्यादा नहीं आई। वरना मौके पर पहुंचे दारोगा ने हमें बताया कि इसी मोड़ पर 28 एक्सीडेंट हो चुके हैं दो साल में। और अभी तक यहां दुर्घटना में कोई नहीं बचा था। 

हम बच गए। 

और सच कहूं तो मुझे लगा था कि किसी ने मुझे गोद में उठा लिया है। अगले दिन भाई गिरीन्द्रनाथ आए थे। मिलने के लिए। बहुत सारी बातें बताईं उन्होंने मुझे, उसका किस्सा फिर कभी।






Monday, October 31, 2016

विवाद के बाद अखिलेश

सारे देश के राजनीतिक पंडितों को यकीन है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता-विरोधी लहर होगी और पिछले दो दशकों से ज्यादा वक्त से वैकल्पिक रूप से सत्ता में आ रहे सपा-बसपा के मामले में इस बार बीजेपी का पलड़ा पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले ज्यादा मजबूत होगा।

कई जानकार इस दफा होने वाले चुनावों में अस्पष्ट जनादेश मिलने के आसार भी व्यक्त कर रहे थे। कई चुनाव-पूर्व सर्वे भी आए, जिसमें सपा को कम सीटें दी गई थीं।

चुनाव-पूर्व विवादों से वोटरों के तय समीकरणों में बदलाव आता है।

उत्तर प्रदेश के पिछले विवाद को याद कीजिए। बीजेपी के नेता ने मायावती के बारे में अपशब्दों का प्रयोग किया, बदले में उनकी पत्नी और बिटिया को गाली दी गई और उससे हुए विवाद और वितंडे के बाद दौड़ से बाहर चल रही बसपा चर्चा में आ गई और लगा कि प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बसपा बन जाएगी।

मुख्यमंत्री रहते, अखिलेश यादव ने युवाओं के नेता के रूप में खुद को स्थापित करने को प्रायः सफल चेष्टा की है लेकिन जोरदार मोदी लहर के अंधड़ में लोकसभा चुनावों के दौरान सब कुछ उड़ गया था। बसपा का तो सूपड़ा साफ हो गया था।

लेकिन समाजवादी पार्टी के अगुआ कुनबे में पैदा हुए विवाद के बाद फिलहाल फायदा तो अखिलेश यादव को होती दिख रही है। विवाद के पहले और आज की तारीख की तुलना की जाए तो अखिलेश यादव की इमेज लोगों की निगाह में काफी सुधरी है और यहां तक कि मुलायम सिंह यादव के मुकाबले अखिलेश को पसंद करने वालों की गिनती में तेजी से इजाफा हुआ है।

अखिलेश की लोकप्रियता उस वर्ग में बढ़ी है जो परंपरागत रूप से समाजवादी पार्टी के वोट बैंक माने जाते हैं। यानी यादवों और मुस्लिम मतदाताओं के बीच सितंबर की बनिस्बत अखिलेश अक्तूबर में ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं। और यह आंकड़े सी-वोटर के एक सर्वे में आए हैं।

गौर कीजिए कि लोकप्रियता के मामले में अखिलेश खुद सपा सुप्रीमो नेताजी के बरअक्स खड़े होने की राह पर हैं और शिवपाल तो उनके सामने कहीं नहीं ठहरते।

वैसे, समाजवादी पार्टी की छवि कानून-व्यवस्था के मामले कुछ अच्छी नहीं है, लेकिन सर्वे में शामिल लोगों ने यह माना है कि अखिलेश अपनी पार्टी की इमेज बदलने की कोशिश कर रहे हैं। परिवार के बवाल में दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप हुए, शिवपाल ने सार्वजनिक रूप से कहा कि मुख्यमंत्री झूठ कह रहे हैं, और सारे देश ने टीवी पर इसका तमाशा देखा, लेकिन इससे शिवपाल को कोई फायदा नहीं हुआ है। इमेज के मामले में, अखिलेश शिवपाल से इक्कीस तो थे ही, इस प्रकऱण में उनकी स्वीकार्यता, चुनावी गणित के लिहाज से पहले से अधिक है और युवाओं मे यह संदेश गया है कि परिवार की खातिर मुलायम अखिलेश पर दवाब डाल रहे हैं।

बहरहाल, इस पूरे विवाद की कड़वाहट में अखिलेश यादव के लिए अच्छी बात यह है कि मायावती खबरों की दौड़ से बाहर हो गई हैं और टेलिविज़न चैनलों पर खबरों में तीन दिनों तक लगातार छाए रहने के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव में विमर्श का मुद्दा अखिलेश हैं। खबरों में बना रहना भी सियासी बढ़त ही है, फिलहाल अखिलेश ने बीजेपी की सत्ता में वापसी की कयासों के बीच खुद को दूसरे नंबर पर ले जाने की कवायद में अपना हाथ ऊपर किया है।




मंजीत ठाकुर

Saturday, October 22, 2016

धोनी की ढलान

महेन्द्र सिंह धोनी जब विकेट पर बल्लेबाज़ी करने आते थे तो दुनिया के किसी भी हिस्से में हो रहे मैच में किसी भी स्कोर का पीछा करना नामुमकिन नहीं लगता था। दुनिया के सबसे बेहतरीन फीनिशर धोनी का करिश्मा शायद अब चुकने लगा है।

चार महीने के आराम के बाद महेन्द्र सिंह धोनी ज़रूर वनडे मैचों के ज़रिए क्रिकेट की दुनिया में जलवा दिखाने को बेताब होंगे। लेकिन, न्यूज़ीलैंड के साथ बीते दोनों मैचों में महेन्द्र सिंह धोनी का वह जादू गायब था, जिसके दम पर एक फ़िल्म बनकर तैयार हो गई और जिसके तिलिस्म में सुशांत सिंह राजपूत भी अपनी फिल्म को सौ करोड़ के सुनहरे क्लब में शामिल कराने में कामयाब हो गए।

जब टीम मुसीबत में होती थी तो धोनी बल्ला थामकर आते थे और जब वह वापस पवेलियन लौट रहे होते तो चेहरे पर विजयी मुस्कान चस्पां होती थी। यही विजयी मुस्कान गायब हो गई है।

धोनी को अपनी इस जिताऊ भूमिका को निभाए, अगर आपको याद हो, एक अरसा गुज़र गया है। अरसा, यानी पूरा एक साल, जब इंदौर वनडे में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ धोनी ने नाबाद 92 रन बनाए थे।

हैरत की बात नहीं, कि अब तक उनके जिम्मे रहे फिनिशर के इस काम के लिए टीम इंडिया दूसरे विकल्पों की तरफ ताक रही हो। इस सूची में रैना भी रहे लेकिन उनके फॉर्म में उतार-चढ़ाव आता रहा और वह इस रोल के लिए फिट नहीं पाए गए। अब इस फेहरिस्त में नया नाम हार्दिक पंड्या के रूप में देखा जा रहा है। पंड्या ने शुरूआत तो ठीक की है, लेकिन दिल्ली वनडे में वह खेल को अंत तक नहीं ले जा सके।

इन सब बातों के बाद भी, धोनी की स्थिति पर हमें सहानुभूति से विचार करना होगा। उनकी उम्र 35 साल से अधिक की हो चुकी है, अपने टेस्ट करियर को उन्होंने अलविदा कह दिया है। उनके खेल में ढलान आ रहा है और इंदौर वनडे के 92 रनों वाली उस धमाकेदार पारी के बाद से धोनी ने एक भी पचासा तक नहीं लगाया है।

शायद यह बदलते वक्त का इशारा है। धोनी की बल्लेबाज़ी में वह धमक नहीं रही, जिसने उनको लाखों-करोड़ो लोगो के दिलों की धड़कन बना दिया था।

दूसरी पारी में लक्ष्य का पीछा करते हुए धोनी ने 119 पारियों में 50 से अधिक के औसत से रन कूटे थे और करीब 4 हजार रन इकट्ठे किए। गौरतलब यह भी है कि अपने अंतरराष्ट्रीय खेल जीवन में धोनी ने अपने सभी 20 मैन ऑफ द मैच पुरस्कार तभी हासिल किए हैं, जब भारत ने लक्ष्य का पीछा किया है।

लेकिन वह दौर शायद गुजर गया जब गेन्दबाज़ धोनी के सामने गेन्दबाज़ी करने से सहमते थे और कुट-पिसकर ड्रेसिंग रूम में लौटते तो अगले मैच में होने वाली कुटाई से बचने की कोशिशों पर चर्चा करते। धोनी अब उतने घातक और मारक नहीं रहे। इस बात की पुष्टि कर दी दिल्ली वनडे ने, जिसमें भारत 6 रनों से हार गया।

धोनी को शतक लगाए तीन साल बीत गए हैं। याद कीजिए उन्होंने 19 अक्तूबर 2013 में मोहाली में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सैकड़ा लगाया था। साल 2014 की जनवरी के बाद से धोनी का औसत 41 से थोड़ा ही ऊपर रहा है। वैसे, यह आंकड़े बहुत बुरे नहीं हैं, लेकिन धोनी के स्तर के तो नहीं ही हैं।

शायद यह उम्र का तकाजा है। शायद धोनी खेलते-खेलते थक गए हों। शायद, कप्तानी के बोझ ने उनकी बल्लेबाज़ी पर असर डाला हो। शायद, हम उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद लगाए बैठे हैं। शायद...लेकिन हमारी इन उम्मीदों को धोनी ने ही बढ़ाया है। धोनी को, और हमें भी यह मान लेना चाहिए कि वक्त बदल गया है।

भारत में बुढ़ाए खिलाड़ियों को बेइज़्ज़त करके टीम से बाहर बिठाने की बड़ी बदतर परंपरा रही है। उम्मीद है कि धोनी ऐसा नहीं होने देंगे।



मंजीत ठाकुर

Sunday, October 16, 2016

तीन तलाक़ औरत बनाम मर्द की ग़ैर-बराबरी का मामला है।

तीन तलाक़ का मसला सांप्रदायिक रंग लेने लगा है। लेकिन तीन तलाक़ का मामला ना मीडिया ने उठाया था और ना बीजेपी ने। हम मुख्य धारा की मीडिया की बहसों या सोशल मीडिया में इसे ऐसी बिनाह पर खारिज नहीं कर सकते। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। बाकी याचिकाओं के साथ, इस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने खुद संज्ञान लिया और सरकार से इस पर उसका रूख पूछा था।

फिर सरकार ने इस पर अपनी राय हलफनामे के रूप में रखी। सात अक्तूबर को सरकार ने सुप्रीम को दिए अपने हलफनामे में कहा कि ‘तीन तलाक़ के मसले के लिए संविधान में कोई जगह नहीं है। पुरूषों की एक से अधिक शादी की इजाजत भी संविधान नहीं देता और तीन तलाक़ और बहुविवाह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।‘

क्योंकि संविधान सभी लोगों की समानता की बात करता है और तीन तलाक़ मर्दो और औरतों के बीत गैर-बराबरी वाली परंपरा है ऐसे में केन्द्र सरकार का हलफनामा भारत के इतिहास का पहला दस्तावेज़ बन गया है जब सरकार मुस्लिमों के तीन तलाक़, हलाला और बहुविवाह को धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक समानता के खिलाफ बताया है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तमाम मुस्लिम संगठन केन्द्र के इस हलफनामे को मुस्लिम-विरोधी और समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ा एक कदम मान रहे हैं। फिर भी, हलफनामे के बाद जिस तरह से मुस्लिम संगठन हो-हल्ला कर रहे हैं, उसकी वजहों को तलाशना कोई रॉकेट साइंस नहीं हैं। 

वैसे भी, समान नागरिक संहिता देश में क्यों लागू नहीं हो सकता यह बहस का विषय तो है। वैसे भी सुधार की प्रक्रियाएं धीमी चलती हैं। खासकर, वह प्रक्रियाएं अगर धर्म से जुड़ी हों। जैन धर्म से जुड़ी संथारा प्रथा को रोकने के लिए भी मामला सुप्रीम कोर्ट में है।

फिलहाल, उत्तर प्रदेश चुनाव के सिर पर आने की पृष्ठभूमि में इस मामले के आने और हो-हल्ले में ज्यादातर प्रगतिशील लोगों का चेहरा खुलकर सामने आ गया है। कल तक महिला प्रगतिशीलता की बात करने वाले लोग, आज इसे धर्म पर सरकार का हमला मानने लगे हैं और नरेन्द्र मोदी पर निजी कटाक्ष कर रहे हैं।

एक निजी अंग्रेजी खबरिया चैनल में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक साहब ने खम ठोंककर कह ही दियाः वह पहले मुसलमान हैं फिर भारतीय। और वह भारतीय संविधान नहीं मानते। ठीक है। लेकिन संविधान की जिस धारा 25 के तहत वह धार्मिक परंपराएं मानने की आजादी का अधिकार मांगा जाता है, वह भी तो संविधान प्रदत्त ही है। जिस संविधान के तहत आप अधिकार का उपभोग करते हैं, वह अधिकार भी तभी मिलेगा जब आप संविधान को मानेंगे। सुविधाजनक बातें हमेशा अच्छी लगती हैं।

तीन तलाक़ देना अगर धर्म के लिहाज़ से ज़रूरी है, फिर तो पाकिस्तान, मोरक्को, ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे एक दर्जन इस्लामी देशों के लोग मुसलमान ही नहीं है, जहां तीन तलाक़ खत्म भले ही नहीं किया गया हो, लेकिन एक हद तक नियंत्रित कर दिया गया है।

गलत परंपराओं की लड़ाई लंबी होती है और कानून एक मज़बूत हथियार होता है लड़ने के लिए। इसलिए तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर कानूनी प्रतिबंध ज़रूरी है।

कई मुस्लिम धर्मगुरूओ ने कहा कि तीन तलाक़ की प्रथा पर बंदिश लगते ही महिलाओं पर रेप, हमले और अपराध बढ़ जाएंगे। कोई बताएगा कि यह कैसे होगा? वैसे आधिकारिक तो नहीं, लेकिन एक अध्ययन बताता है कि हिन्दू समुदाय में जहां तलाक के आंकड़े जहां सवा दो फीसद के आसपास हैं, वहीं यह मुस्लिम समुदाय में पांच फीसद के आसपास है।

हम मानते हैं कि यूपी में इलेक्शन पास है, और इलेक्शन, इश्क़ और लड़ाई में सब जायज़ होता है। इसके लिए आप सुप्रीम कोर्ट के एक सुधारवादी कदम को धर्म के खिलाफ साजिश करार देकर चीख सकते हैं, लेकिन सच यही है कि यह मसला महिला अधिकार बनाम पुरूष वर्चस्व भर का है।




मंजीत ठाकुर

Wednesday, October 12, 2016

एम एस धोनीः द अनटोल्ड स्टोरी की लेट-लतीफ समीक्षा

मुझे क्रिकेट पसंद है और धोनी भी। ऐसे में मुझे एस एम धोनीः द अनटोल्ड स्टोरी तो देखनी ही थी। मैंने फिल्म देर से देखी, और कायदे से देखी।

महेन्द्र सिंह धोनी, में अभी क्रिकेट काफी बाकी है और उनका स्टारडम खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में उन पर बनने वाली बायोपिक के रिलीज़ का यही सही वक्त है। मैं शर्तिया कह सकता हूं कि सचिन पर बने बायोपिक से बाजा़र सौ करोड़ कमाकर नहीं देगा।

बहरहाल, इस कमाऊ फ़िल्म से आप शिल्प और कला पक्ष की उम्मीद न करें, तो बेहतर। यह महेन्द्र सिंह धोनी के जीवन पर आधारित एक मनोरंजक फिल्म है, जिसकी पटकथा का बड़ा हिस्सा सतही है। धोनी का किरदार नीरज पांडे कायदे से रजत पट पर उकेर नहीं पाए हैं। जबकि, हमारी उम्मीदें उस निर्देशक से हद से ज्यादा थीं जिन्होंने इससे पहले अ वैडनेसडे और स्पेशल छब्बीस जैसी फिल्में दी हैं।

इस फिल्म को बायोपिक कहना गलत होगा क्योंकि धोनी की जिंदगी को यह कुछ बारीकी से पेश नहीं कर पाई है। जो बारीकी आपने भाग मिल्खा भाग या मैरी कॉम में देखी होगी, या पान सिंह तोमर में, वह सूक्ष्मता इस फिल्म से नदारद है। खबरें हैं कि नीरज पांडे ने शूट तो बहुत किया था, लेकिन धोनी ने फिल्म देखकर कट लगावा दिए। इस खबर की सच्चाई का कोई सुबूत नहीं है। सिवाय, इस बात के कि इंटरवल के बाद फिल्म में झटके आने शुरू हो जाते हैं और अलाय-बलाय शॉट और सीक्वेंस आते हैं।

जब नाम में लिखा हो अनटोल्ड स्टोरी, तो हम धोनी की जिंदगी के अनछुए पहलुओं से रू ब रू होने की उम्मीद बांधते हैं। एक हद तक पहले एक घंटे में यही सब होता है। धोनी के बचपन की कहानी दिलचल्प भी है और प्रेरणादायी भी।

फिल्म की शुरूआत बेहतरीन है। विश्वकप 2011 के फाइनल के मुसीबत भरे क्षणों से शुरू हुई इस फिल्म को फ्लैश-बैक तकनीक में फिल्माया गया है। दृश्य ड्रेसिंग रूम का है। अचानक धोनी फैसला लेते हैं कि युवराज की बजाय वे बल्लेबाजी के लिए जाएंगे।

यह सीन फिल्म का मूड सेट कर देता है। इसके बाद फिल्म सीधे 30 साल पीछे जाकर धोनी के जन्म से शुरू होती है। इसके बाद धोनी किस तरह क्रिकेट की दुनिया में धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाते हैं, उनके इस सफर को दिखाया गया है।

यह कहानी बताती है कि शुरू में धोनी फुटबॉलर थे, कि उन्हें क्रिकेट में रूचि नहीं थी, कि वह गोलकीपर थे, कि जब वह अच्छा खेलते थे स्कूल में छुट्टी हो जाती थी। यह फिल्म यह स्थापित करती है कि धोनी को धोनी बनाने में उनकी मां और उनके दोस्तों का कितना भारी योगदान है।

फिल्म बताती है कि धोनी, सचिन के भारी फैन थे, कि एक मैच में उनका युवराज सिंह से दिलचस्प तरीके से सामना होता है। कूचबिहार ट्रॉफी के दौरान युवराज सिंह से धोनी का सामना होता है। और खास बात यह कि युवराज के किरदार में हैरी टंगड़ी जबरदस्त लगे हैं। क्या देह-भाषा, क्या लाजवाब एंट्री...। वाह।

यहां आकर फिल्मकार स्थापित कर देता है कि बड़े शहरों के बच्चों की केयरलेस एट्टीट्यूड से कैसे छोटे शहरों के बच्चे धराशायी हो जाते हैं। यह फिल्म यह भी बताती है कि धोनी ने हेलिकॉप्टर शॉट लगाना अपने दोस्त संतोष लाल से सीखा था। संतोष इसे थप्पड़ शॉट कहते थे। लेकिन फिल्म में यह बात मिसिंग लिंक की तरह है। अगर धोनी हेलिकॉप्टर शॉट लगाना सीखते दिखाए गए हैं तो किसी मैच में उस शॉट को खेलते भी दिखाना चाहिए था।

फिल्म हमें बताती है कि दलीप ट्रॉफी में धोनी विमान मिस कर देते हैं। वहीं फिल्मकार किरदार उभारने में यह सीन भी रख सकते हैं कि बाद में उनके बड़े बनने के बाद विमान ने उनका इंतजार भी किया था। लेकिन यह मिसिंग है।

नीरज पांडे ने फिल्म को रियल लोकेशन पर शूट किया है इससे फिल्म विश्वनीय दिखती है। खासकर, धोनी के बचपन का घर, उनकी मां (बहुत शानदार सरलता के साथ) उनकी बहनों के साथ बरताव...सब कुछ नीरज पांडे शैली में विश्वसनीय है। लेकिन फिल्म में कहीं भी धोनी के भाई नरेन्द्र सिंह धोनी का जिक्र भी नहीं। क्यों...यह तो नीरज पांडे ही बता पाएंगे या फिर खुद धोनी।

टीसी की नौकरी में धोनी की कुंठा को अच्छे से दिखाया है जब वह पूरा दिन रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हैं और शाम को मैदान में पसीना बहाते हैं। उसका टीम में चयन नहीं होता तो वह रात में टेनिस बॉल से खेले जाने वाले टूर्नामेंट में खेल कर अपने गुस्से को बाहर निकालता है। एक दिन दिल की बात सुन कर वह नौकरी छोड़ देता है।

धोनी के मन का यह फ्रस्टेशन फिल्माने में नीरज पांडे पूरी तरह कामयाब हुए हैं और इन क्षणों को जीवंत करने कि लिए सुशांत सिंह बधाई के पात्र हैं। फिल्म में धोनी की जद्दोजहद को बखूबी उभारा गया है। कई छोटे-छोटे दृश्य प्रभावी हैं। धोनी के अच्छे इंसान होने के गुण भी इन दृश्यों से सामने आते हैं। लेकिन आह, इंटरवल के बाद फिल्म लड़खड़ाने लगती है।

लेकिन, फिल्म कहीं से भी धोनी के कैप्टन कूल स्थापित नहीं करती। हम फिल्म में प्रायः धोनी को टूटते, रोते और रुआंसा होते देखते हैं। चाहे विमान छूटने की घटना हो या टीम में चयन नहीं होने की खबर हो या फिर पहली प्रेमिका प्रियंका झा की मौत की खबर। लेकिन मैदान पर हमेशा भावनाविहीन और संतुलित कप्तान वह कैसे बने रहते हैं इसका कहीं जिक्र नहीं, कोई उल्लेख नहीं।

दर्शकों की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि ड्रेसिंग रूम के अंदर क्या होता था? धोनी किस तरह से बतौर कप्तान अपनी रणनीति बनाते थे? करोड़ों उम्मीद का तनाव 'कैप्टन कूल' किस तरह झेलते थे? अपने खिलाड़ियों के साथ किस तरह व्यवहार करते थे? उन्हें क्या टिप्स देते थे? सीनियर खिलाड़ियों को कैसे नियंत्रित करते थे? सीनियर खिलाड़ियों को टीम से बाहर करने का जिक्र एक बार जरूर आता है, लेकिन बिना किसी रेफरेंस के।

धोनी के कत्पान बनने का ब्योरा गायब है, फिर टेस्ट में नंबर एक टीम बनने का कहीं उल्लेख नहीं। टी-ट्वेंटी में फाइनल जीत है लेकिन उसकी तैयारियां...वह कहां हैं? याद कीजिए भाग मिल्खा भाग...उस फिल्म में योगराज सिंह के साथ फरहान अख्तर की ट्रैनिंग के दृश्य और जोशीले गीत से क्या आपका एड्रेनलिन नहीं बढ़ गया था?

फिल्म में कुछ दृश्य बेवजह लगते हैं। मसलन, धोनी से मिलने आए उनके टीसी दोस्त का होटल में आना। उस सीन को कोई रेफरेंस नहीं मिलता और आने की वजह से किरदार या फिल्म आगे बढ़ती हो, इसके सुबूत भी हासिल नहीं होते।

फिल्म तीन घंटे से भी ज्यादा लंबी है फिर भी ज्यादातर वक्त दर्शकों को बांधे रखती है। बीच-बीच में ऐसे कई दृश्य हैं जो धोनी के फैंस को सीटी और ताली बजाने पर मजबूर कर देते हैं। धोनी के जीवन में परिवार, दोस्त, प्रशिक्षक और रेलवे में काम करने वाले उनके साथियों का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस बात को उन्होंने अच्छे से रेखांकित किया है।

आमतौर पर फिल्मों में खेल वाले दृश्य कमजोर पड़ जाते हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म बेहतरीन है। सुशांत सिंह राजपूत पूरी तरह क्रिकेटर लगते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से कुछ खामियां भी हैं जैसे धोनी को कम उम्र में रिवर्स स्वीप मारते दिखाया गया है। उस समय शायद ही कोई यह शॉट खेलता हो और खुद धोनी भी यह शॉट खेलना पसंद नहीं करते हैं।

एक्टिंग के मामले में फिल्म लाजवाब है। सुशांत सिंह राजपूत में पहली फ्रेम से ही धोनी दिखाई देने लगते हैं। बॉडी लैंग्वेज में उन्होंने धोनी को हूबहू कॉपी किया है। क्रिकेट खेलते वक्त वे एक क्रिकेटर नजर आएं। इमोशनल और ड्रामेटिक सीन में भी उनका अभिनय देखने लायक है।

जो भी हो, फिल्म में इंटरवल के बाद बारीक ब्योरों की कमी है फिर भी फिल्म मनोरंजक है। भारतीय फिल्मों में शायद यह पहली फिल्म है जिसने बिना किसी खान के सौ करोड़ की कमाई का बुलंद आंकड़ा छुआ है। जाहिर है, धोनी की स्टार हैसियत किसी खान से कम नहीं।

अनुपम खेर, भूमिका चावला, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, दिशा पटानी, किआरा आडवाणी ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।

महेंद्र सिंह धोनी हमारी पीढ़ी के क्रिकेटर हैं। उनने हमें गर्व के कई मौके दिए हैं और फिल्म में उन्हें दोबारा जीना बहुत अच्छा लगता है। कलात्मकता के तौर पर फिल्म से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन बायोपिक की विधा में बावजूद कई खामियो के यह फिल्म (कमाई के मामले में) मील का पत्थर है।

Saturday, October 8, 2016

सिर्फ़ शौचालय बनाकर क्या होगा?

जी हां, सही कह रहा हूं मैं। देश भर में सरकार स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बनवाने पर काफी जोर दे रही है। सरकारी दावे हैं, और अगर सही हैं तो काफी उत्साहवर्धक बात है, कि पिछले साल भर में देश में दो लाख स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय बना दिए गए हैं। ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने स्पष्ट किया है, कि इन शौचालयों में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की जा रही है।

ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता की आदतें विकसित करने के लिए सरकार की यह कोशिश सराहनीय है। लेकिन शौचालय बनाने और इसके लिए जागरूकता फैलाने के विज्ञापन अभियानों में बड़ी नायिकाओं के ज़रिए टीवी पर संदेश दिखाने के बाद, मेरी राय में, सरकार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है और यह जिम्मेदारी हम पर, आप पर आ जाती है।

आज से छह-सात साल पहले, केन्द्र में यूपीए की सरकार के शासन के दौरान जब मैं ग्रामीण विकास से जुड़े रिपोर्ताज बनाने गांवों का दौरा किया करता था, तब रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्री हुआ करते थे और उन्होंने भी निर्मल ग्राम परियोजना शुरू की थी। लेकिन नतीजे सिफ़र थे।

ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों और पंचायत स्तर के नेताओं में इस विषय में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मान लीजिए कि उस वक्त ग्रामीण विकास के काम में स्वच्छता की कोई खास अहमियत नहीं थी।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने गांधी जयंती पर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू कर दिया था। मैं यह भी मानता हूं कि इस अभियान से किसी भी सियासी दल को कोई खास राजनीतिक फायदा नहीं मिलेगा। फिर भी, आज की तारीख में सफाई भारत के सर्वोच्च राजनैतिक एजेंडा है तो इसके कुछ मायने होने चाहिए, और वह भी सकारात्मक मायने।

इस वक्त, प्रधानमंत्री खुद इस अभियान में निजी तौर पर दिलचस्पी लेते हैं, और जाहिर है, यह दूरदराज तक के अधिकारिओं और बाबुओं में, चर्चा का विषय बन रहा है। ताज़ा आंकड़ें बताते हैं कि अगर देश में इसी रफ्तार से शौचालय बनते रहे तो अगले साल अक्तूबर महीने तक देश के अस्सी फीसद से अधिक घरों में टॉयलेट बन जाएंगे।

इस उपलब्धि को कमतर आंकना गलत होगा। लेकिन, इसके बावजूद, मैं मानता हूं कि सिर्फ शौचालय बनाकर ही हम ग्रामीण स्वास्थ्य में बेहतरी के लक्ष्य को नहीं पा सकते। हमें ज्यादा से ज्यादा तादाद में शौचालय बनवाने के साथ ही, कुछ और कदम भी उठाने होंगे।

मसलन, किसी घर में शौचालय होने भर का यह मतलब नहीं है कि उसका इस्तेमाल भी हो रहा है। खुद उत्तरी बिहार के मेरे गांव में, तकरीबन हर घर में शौचालय है लेकिन लोग खेतों में जाना पसंद करते हैं। मुझे आजतक इसका मतलब समझ में नहीं आया है।

यह भी हो सकता है कि शौचालय का इस्तेमाल दिन के किसी समय में, परिवार के कुछ ही सदस्यों द्वारा या सिर्फ किसी खास मौसम में ही किया जा रहा हो। यह पूरे भारत की बड़ी अलहदा किस्म की समस्या है। भारत में ग्रामीण स्वच्छता की कमान स्थानीय समुदाय के हाथों में देने की ज़रूरत है ताकि स्थानीय जरूरतों और परंपराओं को स्वच्छता के हिसाब से ढाला जा सके। मुख्तसर यह कि हमें इस मामले में व्यावहारिक चीजों पर ध्यान देना होगा। हमें हर हाल में, बुनियादी ढांचे की उपलब्धता और इसकी उपयोगिता के बीच का फासला कम करना होगा।

देश भर में ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को मिल रही प्राथमिकता ठीकहै, और कम अवधि के छोटे-छोटे लक्ष्य भी तय किए गए हैं। लेकिन ऐसी जल्दबाजी काम की रफ्तार को तेज तो करेगी, लेकिन आम लोगों की आदतों और बरताव में इतनी जल्दी बदलाव लाना मुश्किल है। दरअसल, यह समस्या इस बात से भी उजागर होती है कि पूरे मिशन में प्रचार-प्रसार और जागरूकता फैलाने के लिए बजट में कितने कम खर्च का प्रावधान रखा गया है।

इस अभियान में, ठोस और तरल कचरे और मल का प्रबंधन और उनका निपटान के लिए ठोस योजना की जरूरत है।

स्वच्छता मिशन के तहत या तो शौचालय बनवाए जा रहे हैं या लोगों से सफाई की उम्मीद की जा रही है। लेकिन सफाई का यह स्वयंसेवा मोड ज्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगा। मिसाल के तौर पर, मैं अपने घर-आंगन और मुहल्ले में झाड़ू लगाकर कचरा इकट्ठा कर सकता हूं, लेकिन इकट्ठा किए कचरे के लिए कूड़ेदान, उस कूड़ेदान से कूड़ा उठाकर ले जाने की मशीनरी और इस जमा कचरे को ठिकाना लगाकर उसकी रिसाइक्लिंग की व्यवस्था तो सरकार या निकायों को ही करनी होगी।

‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत की गई कोशिशों में घर और आसपास की स्वच्छता पर काफी ध्यान है। लेकिन संस्थागत व्यवस्था पर चुनौती के मुताबिक उतना ध्यान नहीं है। शौचालयों की मरम्मत और रखरखाव के लिए भी कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।

पुराने स्वच्छता अभियानों की तुलना में इसके तहत उल्लेखनीय सुधार हुआ है। मगर स्वच्छ भारत की यह महत्वाकांक्षी योजना एक और कदम की अपेक्षा करती है। एक नए सामाजिक नियम की जरूरत है जिससे खुले में शौच करना एकदम अस्वीकार्य हो जाए। साथ ही साथ पर्यावरण की स्वच्छता को भी उतना ही महत्वपूर्ण बनाया जाए जितना घर के भीतर की साफ-सफाई।

अब स्वच्छता में ईश्वर बसते हैं ऐसी हमारी परंपरा कहती है तो ऐसी सफाई सिर्फ दीवाली-दशहरे में क्यों हो? साल भर यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। लेकिन ऐसा सरकारी योजनाओं के साथ तभी मुमकिन हो पाएगा, जब हम और आप इसमें सरकार के कदमों के साथ कदम मिलाकर चलें। हमारा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इस योजना की अब तक की कामयाबियों पर कूड़ा फेर सकता है।



मंजीत ठाकुर

Wednesday, October 5, 2016

आवारा झोंकेः दो

समंदर के पानी में हज़ार मछलियां
लेकिन हर मछली
तन्हा है। 


जंगल में होते हैं हज़ार पेड़
पर हर पेड़ मिट्टी में धंसा
और तन्हा है।
आसमान में उड़ते बादल के दोस्त भी
बरस कर मिल जाते मिट्टी में
और एक बादल रह जाता है पीछे
हवा में झूमता
तन्हा है।

आवारा झोंकेः एक

जब भी रंगता हूं अपना घर,
बड़े ब्रांड्स के रंगों से सजाता हूं
कि जैसे कोई इंद्रधनुष हो
पर एक कमरा रह जाता है खाली
काली दीवारों वाला
जहां रहता हूं मैं,
तन्हा
खुद के साथ।

Monday, October 3, 2016

मोदी का मास्टर स्ट्रोक है सर्जिकल स्ट्राइक

पाकिस्तानी आतंकी गुटों के खिलाफ एलओसी पार करके सर्जिकल स्ट्राइक भारत ने किया, उस दौरान मैं एक बार फिर से जंगल महल के उन इलाकों में था जहां मलेरिया अब भी जानलेवा है, जहां सड़कें बन कर तैयार हैं तो लोगों को लगा कि विकास हो गया, और जहां करीब साढ़े तीन साल से कोई राजनीतिक हत्या (पढ़ें- नक्सली हिंसा) नहीं हुई है।

पाकिस्तान ने जब उरी में भारतीय सैन्य शिविर पर हमला कर दिया और हमारे 18 (अब 19) जवान शहीद हो गए, तब से हम में से अधिकतर लोगों के ख़ून उबल रहे थे। देश पर युद्धोन्माद-सा छा गया था और टीवी चैनल लग रहा था, सीधे पाकिस्तान पर ही हमला बोल देंगे।

उन्हीं दिनो, साइबर विश्व के नागरिक और खबरों से नजदीकी रखने वाले लोग जानते होंगे कि एक खबरिया वेबसाईट ने सर्जिकल स्ट्राइक की खबर फोड़ी। रात भर जानकार दोस्त इस पर विचार-विमर्श पर चर्चा करते रहे और सामान्य बुद्धि यही कहती थी कि अगर, ऐसा कोई सर्जिकल स्ट्राइक हुआ भी तो वह संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बयान के बाद ही होगा। हुआ भी यही।

लेकिन उससे पहले, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दोनों देशों, भारत और पाकिस्तान को मिलकर गरीबी के खिलाफ लड़ने का आह्वान किया था।

वक्त और जगह तय हम करेंगे, यह बयान संभवतया अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है लेकिन यह मान लेने में कोई दो राय नहीं है कि उरी पर आतंकी हमले के बाद मोदी सामरिक से कहीं ज्यादा राजनैतिक और कूटनीतिक उलझन में रहे होंगे। अपनी विदेश नीति में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को नई तरह क कूटनीतिक तेवर दिए हैं। पाकिस्तान के साथ अगर उलझाव लंबा चला तो इन तेवरों की दिशा भी बदल सकती है।

यह सही है कि भारत की विदेश नीति का केन्द्र पिछले कई दशकों से पाकिस्तान के साथ रिश्ते रहे हैं और भारत ने पाकिस्तान से दुश्मनी को केन्द्र में रखकर ही, या पाकिस्तान ने भी भारत को केन्द्र में रखकर अपने दोस्त या दुश्मन तय किए।

पाकिस्तान के साथ रिश्ते नरम करने की पहल अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी। वाजपेयी का जिक्र इसलिए क्योंकि दक्षिणपंथी पार्टी के प्रधानमंत्री होने के नाते पाकिस्तान के साथ रिश्ते खराब होने की सबको आशंका थी, लेकिन वाजपेयी ने पहल करके सबको चौंका दिया था। यह बात और है कि उसका नतीजा करगिल युद्ध के रूप में निकला।

अब जबकि, दुनिया भर में सन् 1999 के मुकाबले भारत अधिक ताकतवर है, मोदी ने भी वाजपेयी की उस पहले को अधिक तेज़ी दी थी। खुद नवाज शरीफ की पोती के शादी में अनौपचारिक रूप से पहुंचकर, या अपने मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण में पाकिस्तान को भी आमंत्रित करके, या यूं ही सेहत का हाल-चाल पूछकर, मोदी ने रिश्तों को अनौपचारिक रूप देने की कोशिश की।

लेकिन, पटानकोट और उरी के हमलों के बाद पाकिस्तान को उत्तर देना जरूरी था। हालांकि, भारत ने पठानकोट के बाद संयम और सूझबूझ का परिचय दिया।

लेकिन उरी के बाद सर्जिकल स्ट्राइक करके मोदी ने यह भी साबित किया कि 1999 में जहां वाजपेयी एलओसी पार नहीं कर पाए थे, वहीं मोदी ने मुंहतोड़ जवाब भी दिया और नियंत्रण रेखा के पार भी गए।

तो एक बात समझिए कि पाकिस्तान को नाथने की यह कोशिश पहले से ही लोकप्रिय नरेन्द्र मोदी को कुछ उसी तरह और भी ऊंचे स्थान पर ले जाएगी, जिसतरह सन इकहत्तर के युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को खास लोकप्रियता मिली थी। इंदिरा, दुर्गा का अवतार मानी गईं थीं। मोदी का फ़ैसलाकुन अंदाज़ जनता को पसंद आएगा, यह तय मानिए।

मैंने पहले कहा था, उरी के हमले के बाद भी मोदी ने गरीबी के खिलाफ युद्ध का आह्वान किया था और ऐसा करके मोदी ने भगवा ब्रिगेड के कट्टरपंथियों की बनिस्बत अपनी राजनीतिक संजीदगी साबित की। पाकिस्तान के साथ अगली झड़पें मोदी के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद साबित होंगी और मोदी लार्ज-दैन-लाइफ किरदार में उभर सकते हैं।

अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई हुई तो बिखरा हुआ पाकिस्तान पहले से अधिक बिखर जाएगा, और जैसी कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भविष्यवाणी की है, बीजेपी का राजनैतिक वर्चस्व अगले 15-20 बरस तक के लिए कायम हो जाएगा।

पाकिस्तानी चालबाज़ियों के खिलाफ इस सर्जिकल स्ट्राइक ने यह भी तय किया है कि चीन को भी एक चेतावनी मिले, जो अमूमन भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ कर लेता है। अब यह बात सवालों के घेरे में है कि हम चीन के मुकाबले सैन्य शक्ति में कहां ठहरते हैं भला? लेकिन वह सवाल बाद का है, धौंसपट्टी नहीं सही जाएगी, यह आज की कूटनीति है।

जहां तक मोदी का प्रश्न है, उनकी उंगलियो की इस हल्की जुंबिश से यूपी और उत्तराखंड चुनाव पर असर पड़ेगा यह तो तय है ही, बात-बात पर अपनी एटमी शक्ति की शेखी बघारने वाले पाकिस्तान को भी विश्व भर में नीचा देखना पड़ रहा है।

मंजीत ठाकुर

Saturday, October 1, 2016

पानी पर गुत्थमगुत्था

पिछले कुछ हफ्तों में कावेरी और तमिलनाडु में कावेरी जल बंटवारे पर काफी घमासान दिखा था। बसों को जलाना अपने देश में विरोध प्रदर्शन का सबसे मुफीद तरीका है, सो बसें जलाईं गईं, सड़को पर टायर जलाए गए और हो-हल्ला हुआ।

इसके पीछे मसला क्या था? असल में, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर एक समझौता है। समझौते का इतिहास हालांकि बहुत पुराना है लेकिन पिछले दो दशकों में यही हुआ कि जल विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 1990 में अंतर-राज्य जल विवाद अधिनियम के तहत एक पंचाट का गठन किया। साल 2007 में इस पंचाट ने जल विवाद पर पानी के बंटवारे से संबंधित अपनी आखिरी सिफारिश या फ़ैसला दिया। 2013 में केन्द्र द्वारा इसकी अधिसूचना जारी किए जाने के तीसरे वर्ष ही कर्नाटक के उस इलाके में, जहां से कावेरी अपना जल ग्रहण करती है सूखा पड़ गया।

इस साल कर्नाटक के कोडागू जिला, जहां से कावेरी अपना जल ग्रहण करती है, 33 फीसद कम बरसात हुई। नताजतन, कर्नाटक मे कावेरी के जलाशयों, केआरएस, काबिनी, हारंगी और हेमवती बांधों, में अपनी क्षमता से कम पानी मौजूद था। सामान्य तौर पर इस वक्त यह जलभंडार 216 टीएमसी फुट होता है, जबकि इस साल यह भंडार महज 115 फुट था।

कावेरी जल विवाद निपटारा पंचाट का फैसला था कि सामान्य बारिश वाले वर्ष में, कर्नाटक को तमिलनाडु के लिए 193 टीएमसी फीट पानी छोड़ देना चाहिए। जून में 10 टीएमसी फुट, 34 टीएमसी फुट जुलाई में, 50 टीएमसी फुट अगस्त में, 40 टीएमसी फुट सितंबर में और 22 टीएमसी फुट अक्तूबर में। जब कर्नाटक ने जुलाई और अगस्त में जरूरी पानी नहीं छोड़ा, तब तमिलनाडु ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट ने 5 सितंबर को अपनी सुनवाई कर्नाटक को निर्देश दिया कि वह अगले 10 दिनों तक रोज़ 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़ें। कर्नाटक ने इस निर्देश के खिलाफ अपील की, लेकिन तमिलनाडु के लिए पानी भी छोड़ दिया। लेकिन दोनों ही राज्यों में पानी के लिए विरोध-प्रदर्शनों को दौर शुरू हो गया।

वैसे, कावेरी के पानी में कर्नाटक का योगदान 462 टीएमसी फुट का होता है लेकिन उसे 270 टीएमसी फुट के इस्तेमाल करने का हक है। जबकि तमिलनाडु सिर्फ 227 टीएमसी फुट का योगदान करके 419 टीएमसी फुट का इस्तेमाल कर सकता है।

यह अजीब सा विभाजन इसलिए हुआ क्योंकि 1924 में जब कावेरी जल का पहला बंटवारा हुआ, उस वक्त तमिलनाडु कावेरी के 80 फीसद पानी का उपयोग कर रहा था। तमिलनाडु के किसानों को पहले उपयोग करने का फायदा मिला।

बहरहाल, पानी के लिए तीसरा विश्वयुद्ध लड़ा जाएगा इसके बारे में कई विद्वानों ने पहले ही आशंकाएं और भविष्यवाणियां कर रखी हैं। लेकिन इस युद्ध को टालने, या पानी पर झगड़ों को खत्म करने का क्या कोई उपाय नहीं हो सकता?

हो सकता है। मैं हमेशा से पानी के आयात को खत्म या बेहद कम करने के पक्ष में रहा हूं। पूरे भारत में रेगिस्तानी इलाकों को छोड़ दें, तो कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां पीने या इस्तेमाल के लायक पानी नहीं बरसता हो। यह बात और है कि हम लोग उस बारिश के पानी को रोकते नहीं, उसको बचाकर नहीं रखते र हमारी बारिश बर्षा आधारित ही है, लेकिन बर्षा से कम, बरसात आधारित ज्यादा है।

तमिलनाडु की औसत वार्षिक वर्षा करीब 95 सेमी है तो कर्नाटक की करीब 124 सेमी। इसकी एक वजह है कि तमिलनाडु में दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून से बरसात नहीं होती, बल्कि उसके पूर्वी तट पर तब बरसात होती है, जिसे हम मॉनसून की वापसी कहते हैं।

फिर भी, जलछाजन योजनाओं के ज़रिए पानी की बचत की जा सकती है। तालाबों की तमिलनाडु में पुरानी परंपरा रही है, उसको पुनर्जीवित करके और ज्यादा पानी खर्च करने वाली फसलों की जगह कम पानी वाली फसलों का चयन करके पानी की बचत की जा सकती है।

पानी के किफायती इस्तेमाल करके भी पानी के आयात को कम किया जा सकता है। जलछाजन योजना में आसपास के दो सबसे ऊंची जगहों के बीच की जगह को वॉटरशेड एरिया या जलछाजन क्षेत्र कहा जाता है। यह इलाका 50 हेक्टेयर से लेकर 50 हजार हेक्टेयर के बीच के आकार का हो सकता है।

इसमें चैक-डैम, छोटी बंधियां और सड़को के, खेतों के किनारे नाले बनाकर बरसात के पानी को सही जगह रोका जाता है। और वॉटरशेड इलाके में पानी की उपलब्धता के आधार पर बोई जाने वाली फसलों का चयन किया जाता है।

बूंद सिंचाई और स्प्रिंकल सिंचाई के जरिए भी पानी की बचत की जा सकती है।

लेकिन पानी की बचत से अधिक ज़रूरी है कि पानी के लिए खून न बहाया जाए।

दोनों राज्यों के नेताओं को अपने अहंकार को तिलांजलि देकर और बरसात की मकी वाले वर्षों में पानी के बंटवारे का कोई फॉर्मूला निकालेना होगा। पिछले नौ वर्षों से कम मॉनसून के वक्त पानी के बंटवारे का कोई फॉर्मूला नहीं निकाला जा सका है। कावेरी पंचाट ने अपना आखिरी फैसला 5 फरवरी, 2007 को सुनाया था, तब से अब तक कोई सर्वानुमति नहीं हुई है कि मॉनसून खराब रहने पर पानी का बंटवारा कैसे किया जाएगा।

अकाल में मिलकर चलना जरूरी होता है, वरना अकेले पड़ जाने पर नुकसान अधिक होता है, खतरा भी।

मंजीत ठाकुर

Friday, September 16, 2016

मच्छर का कारोबार

यह दौर मच्छरों का दौर है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार डेंगू और चिकनगुनिया पर अपने अस्पष्ट रुख और लापरवाही भरे रवैये के कारण घिर चुकी है और खासी लानत-मलामत के बाद भी चिकनगुनिया का प्रकोप कम नहीं हो रहा।

चुनाव की तैयारियों में जुटे और फिर लंबी ज़ुबान का इलाज करा रहे केजरीवाल की गैर-मौजूदगी में उनके मंत्रियों ने लापरवाही भरा और अड़ियल रवैया अख्तियार किया और टीवी चैनलों पर पर्याप्त छीछालेदर झेली।

लेकिन सवाल है कि राज्यों और केन्द्र के अरबों के बजट के बाद भी मच्छर को हरा नहीं सके! इसका जवाब हमें मच्छरों से जुड़े कारोबार में देखना होगा। भारत में मच्छर मारने और भगाने की दवाओं और रसायनों का बहुत बड़ा बाज़ार है। बढ़ती साक्षरता की वजह से जागरूकता भी बढ़ी है और इसलिए मच्छरजनित रोगों को लेकर लोग सजग हुए हैं।

भारत में मच्छरों को पूरा तरह खत्म कर पाना तकरीबन नामुमकिन है और शायद इसलिए हम भारत के लोग अपनी नगरपालिकाओं और नगर-निगमों से अधिक भरोसा कॉइलों, मैट्स, वैपराइजर्स, एयरोसोल्स और क्रीमों पर करते हैं। मच्छरदानी तो एक उपाय है ही।

आपको जानकर हैरत होगी कि भारत में मच्छर भगाने की रसायनों का बाज़ार 3200 करोड़ रूपये से अधिक का है और इसमें भी चार बड़े खिलाड़ी है, रेकिट बेंकिज़र, ज्योति लैबोरेटरीज़, गोदरेज और एससी जॉनसन। इनके उत्पादों से आप परिचित ही होंगे, मॉर्टिन, मैक्सो और गुडनाईट।

अब इन रसायनों की मांग ग्रामीण इलाकों में भी काफी बढ़ गई है और इनमें भी मांग के मामले में वैपोराइजर्स, मैट्स और कॉइल को हरा रहे हैं। शहरी इलाकों में मच्छर भगाने के लिए इन रसायनों का इस्तेमाल कुल खपत का 70 फीसद है। इनमें भी 51 फीसद मार्केट शेयर के साथ गुडनाइट बाज़ार का अगुआ है और मॉर्टिन के पास 14 फीसद बाज़ार है। वैपोराइजर्स में ऑलआउट 69 फीसद और गुडनाईट 21 फीसद बाज़ार पर कब्जा किए हुए है।

वैसे कम लोगों को यह बात पता होगी कि इन मच्छर भगाने वाले रसायनों में ऑलथ्रिन नाम का रसायन होता है जो आंखों, त्वचा, श्वसन तंत्र और तंत्रिका तंत्र के लिए नुकसानदेह होता है। लंबे समय तक इन रसायनों के संपर्क में रहने से ब्रेन, लिवर और किडनी के खराब होने का खतरा होता है।

बहरहाल, इन खतरों के बारे में कोई बात नहीं करता। कम से कम भारत में तो नहीं ही करता। मच्छरों से होने वाली डेंगू और चिकनगुनिया पर टीवी अखबारों और सोशल मीडिय पर काफी हल्ला है लेकिन मलेरिया की बात कोई नहीं करता। जबकि मलेरिया इतनी गंभीर बीमारी है कि इसके उन्मूलन के लिए भारत सरकार ने दोबारा राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया है। अब मलेरिया उन्मूलन के लिए साल 2030 तक का लक्ष्य तय किया गया है।

आपको याद होगा कि मलेरिया उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम पहले भी चलता था, फिर वह पूरा क्यों नहीं हुआ? असल में, भारत में मलेरिया का उन्मूलन लगभग पूरा हो चुका था, लेकिन साठ के दशक के उत्तरार्ध में यह अधिक तेजी के साथ लौट आया। आज, मलेरिया भारत में मृत्यु, विकलांगता और आर्थिक नुकसान का सबसे बडा कारण है। खासकर गरीबों में, जिनके पास सही समय पर असरदार इलाज नहीं पहुंच पाता।

छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं में मलेरिया के प्रति प्रतिरोधी क्षमता बेहद कम होने की वजह से यह माता-मृत्यु, मृत शिशुओं के जन्म, नवजात शिशुओं का वजन बेहद कम होने वगैरह का कारण बनता है। यही नहीं, 1980 के दशक से एक नए प्रकार का मलेरिया, प्लाज़्मोडियम फेल्सिपेरम (पीएफ), भारत में तेजी से बढ़ रहा है, जो अधिक तीव्र तथा अमूमन जानलेवा होता है।

विश्लेषकों का मानना है कि भारत में मलेरिया के रोगियों की संख्या 6 से 7.5 करोड प्रति वर्ष तक है। भारत के सबसे अधिक मलेरिया-ग्रस्त इलाके सबसे गरीब क्षेत्र ही हैं। वैसे, मलेरिया शहरी भागों में भी बढ़ रहा है, लेकिन मलेरिया के आधे मामले उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल से आते हैं। मलेरिया प्रभावित जिलों का दूरदराज में स्थित होना इस रोग के निदान और उपचार की एक बड़ी बाधा है।

1953 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरू किया जो घरों का भीतर डीडीटी का छिडकाव करने पर केन्द्रित था। इसके तहत 125 नियंत्रण इकाईयों के ज़रिए मलेरिया नियंत्रण की कोशिश शुरू की गई। हर इकाई में 130 से 275 लोग लगाए गए और अनुमान है कि हर इकाई ने दस लाख लोगों का मलेरिय़ा से बचाव किया। पांच साल में ही कार्यक्रम की वजह से मलेरिया की घटनाओं में आश्चर्यजनक कमी देखी गई। इससे उत्साहित होकर एक अधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) 1958 में शुरू किया गया। इसके तहत नियंत्रण इकाईयों की संख्या बढ़ाकर 160 कर दी गई और 16 करोड़ से अधिक लोगों का मलेरिया से बचाव किया जा सका। इससे मलेरिया में और भी कमी आई और उसका मृत्यु की वजह बनना थम गया। 1961 में मलेरिया के मामलों की संख्या घटकर 49151 तक रह गई। ऐसा अनुमान था कि अगर कार्यक्रम ऐसे ही चलता रहा तो देश से मलेरिया का उन्मूलन अगले सात से नौ साल के भीतर हो जाएगा।

मलेरिया के घटते मामलों ने लोगों को लापरवाह बना दिया और अब डीडीटी का छिड़काव करने आए कर्मचारियों को गंभीरता से नहीं लिया जाने लगा। दूसरी तरफ मलेरिया विभाग के कर्मचारियों में अफवाह फैली कि मलेरिया उन्मूलन के बाद उनकी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। ऐसे में छिड़काव में ढिलाई बरती जाने लगी।
ऐसे में 1965 में मलेरिया की वापसी हुई और 1971 में दस लाख लोग फिर से मलेरिया की चपेट में आए।

अब छिड़काव की जगह बचाव पर ध्यान केंद्रित किया गया और डीडीटी की जगह मच्छरदानियों के इस्तेमाल को तरज़ीह दी गई। फिर तकनीकी ढिलाई की वजह से मलेरिया के विषाणु ने क्लोरोक्विन के प्रति प्रतिकार क्षमता पैदा कर ली और देश में फेल्सिपेरम मलेरिया बढने लगा।

जो भी हो, एक कामयाबी की तरफ बढ़ते राष्ट्रीय कार्यक्रम को भारत के लापरवाह लोगों ने नाकामी की तरफ धकेली दिया। इसमें जनता और मलेरिया विभाग के नौकरी खोने से डरे दोनों लोगों की जिम्मेदारी है।

अब जबकि, मलेरिया के विषाणु कई किस्म की प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं, सरकार को नए सिरे से राष्ट्रीय कार्यक्रम चलाना पड़ रहा है। तो क्या हम मान लें, कि जैसी दुरभिसंधि मलेरिया के मामले को फेल कर देने की रही, वैसी ही डेंगू और चिकनगुनिया में नहीं हो रही होगी? आखिर, मच्छर ही नहीं रहेंगे तो मच्छर भगाने वाले रसायन हम खरीदेंगे ही क्यों?

फिलहाल तो शक है और शक बिलावजह नहीं है।

मंजीत ठाकुर

Tuesday, September 13, 2016

मधुपुर :हिंदी के दो स्मृतियोग्य सेवक

डाॅ.उत्तम पीयूष

1970 के जमाने से लेकर 1980 तक के जमाने तक, मधुपुर में विधिवत् हिंदी साहित्य की परंपरा ठीक ठाक नजर नहीं आती। उससे पहले तो और भी कठिन था मधुपुर के हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य।


पर ,एक भाषा के तौर पर हिंदी का प्रयोग स्वतंत्रता पूर्व के कुछ प्रकाशित दस्तावेजों से पता चलता है जिसमें 1935 में कोलकाता के हैरिसन प्रेस से प्रकाशित राष्ट्रीय शाला "तिलक विद्यालय " से संबंधित दस्तावेज महत्वपूर्ण हैं।और कुछ हैं जिनकी अलग से चर्चा करूंगा।

पर आज तो उन दो गुरूओं को स्मरण करने का प्रयास कर रहा हूं जिन्होंने अपनी निष्ठा से अलग अलग तरीके से "हिंदी" की अद्भुत सेवा की थी।
एक थे खजौली (ग्राम ठाहर) से आये मोहन लाल गुटगुटिया उच्च विद्यालय के भूगोल के शिक्षक स्व. रामदेव ठाकुर और दूसरे आरा की ओर से आए श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य शिव सहाय शर्मा जी।

इन दोनों शिक्षकों ने 1965/70से लेकर 1975/80 तक के जमाने को अलग अलग तरीके से हिंदी को काफी समृद्ध किया था। स्व. रामदेव ठाकुर कला, भाषा और साहित्य के 'जीनियस 'थे। वे भूगोल पढाते थे। संस्कृत उनकी जिह्वा पर थी। हाथ में ब्रश या रंगीन चाॅक आ जाए तो चित्र उभरने लगते थे।

उनके बनाये भित्ति चित्र आज भी मेरी आंखों में पैबस्त हैं। वो दीवार पर बना उनके हाथ का ताजमहल! अंग्रेजी वैसे ही पढाते जैसे अंग्रेजी के टीचर हों। पर जब बात हिंदी की होती तो उनको सुनने का अलग ही आनंद था।

उनसे विद्यापति, सूर, मीरा, जायसी, रहीम और रसखान के साथ तुलसी के दोहों के अर्थ समझना अलग ही मायने रखता। स्पष्ट और गूंजती आवाज, विशद ज्ञान और उनका वह वाग्वैदग्ध्य! 

हिंदी भाषा में उनके कहने के उस अंदाज को आज भी याद करके रोमांचित भी होता हूं और प्रेरित भी। बहुत कम लोग हिंदी का इतना इफैक्टिव प्रयोग कर पाते हैं। आज भी कहीं मेरे जन्मदिवस पर दिए उनके शब्द उद्गार सुरक्षित हैं। हिंदी भाषा के इस महान 'मास्टर मैन' को मेरा नमन है।

और यदि आपने श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय भवन का मुख्य हाॅल देखा होगा पहले कभी तो देखा होगा कि उस हाल की दीवारों पर देश के महान लोगों के एक से एक चित्र लगे थे। (अभी क्या स्थिति है नहीं मालूम )।पर, इसी भव्य हाॅल में प्रत्येक साल स्रावन शुक्ल सप्तमी को एक विराट "तुलसी जयंती समारोह "का आयोजन हुआ करता। आयोजनकर्ता होते अनन्य हिंदी प्रेमी शिवसहाय शर्मा जी। छात्रों की भीड ,एक से एक विद्वानों की गरिमामयी उपस्थिति और संत तुलसी दास पर विद्वानों के विचार।मन रम जाता और शर्मा जी आह्लादित होते।

हिंदी को हिंदी विचारों ,समारोहों और आयोजनों के जरिए इन गुरूओं ने मधुपुर में जो एक माहौल बनाया था -जिसमें बौद्धिकता भी थी और सहृदयता और सरलता भी -आज के मधुपुर को इनका आभारी होना चाहिए और इन सहित ऐसे तमाम हिंदी सेवियों का पुनरस्मरण करना चाहिए।

Thursday, September 8, 2016

राहुल@2.0 की खाट चर्चा

कहावत है कि सियासत में जब कुछ नया हो तो उसकी पहल करने वाले नेता के बारे में एक बार ज़रूर सोचना चाहिए। राजनीति के अभिनव प्रयोग की शुरूआत हमेशा नेता करते हैं, और अमूमन जनता उस पहल पर अपनी मुहर लगाकर उसे पॉप्युलर बनाती है या खारिज़ कर देती है।

सत्ताइस साल से उत्तर प्रदेश की कुरसी से दूर कांग्रेस अपने युवराज राहुल गांधी औऱ चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर को लेकर चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत में लगी है। प्रशांत किशोर का नाम 2014 लोकसभआ चुनाव में नरेंद्र मोदी के धारदार चुनावी अभियान के बाद चमका। बीजेपी की प्रचंड जीत प्रशांत किशोर चुनावी अभियान की रणनीति का नतीजा मानी जाती है। लेकिन साल 2014 के बाद बिहार चुनाव में नीतीश-लालू के लिए काम किया। उन्हें भी जीत दिलाकर प्रशांत किशोर ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।

अब 2017 के लिए पंजाब और यूपी इलेक्शन में कांग्रेस के लिए प्रशांत किशोर मैदान में हैं। साल 2014 का इलेक्शन हो या बिहार इलेक्शन पीके चुनावी कैंपेन में माहिर माने जाते हैं। अब यूपी में 27 साल बाद कांग्रेस की जमीन को मजबूत करते दिख रहे हैं।

देवरिया से राहुल ने पैदल यात्रा की तो वहां खाट सभा की योजना भी, जाहिर है, उऩके सलाहकार प्रशांत ने ही बनाई। करीब-करीब दो हजार खाट भी रखी गई। यात्रा शुरू हुई राहुल गांधी जैसे ही आगे चले, पीछे से सभा में शामिल लोग अपने-अपने हिस्से की खाट लेकर चलने लगे। अब खाट के इस लूटपाट को भी पीके का राजनीतिक स्ट्रोक बोला जा रहा है। पीके ने ही खाट बिछाई और खाट लुटवाई इससे होने वाले राजनीतिक फायदे काफी गहरे हैं।

कांग्रेस ने अपना चुनावी अभियान तब शुरू किया है जब बसपा ने अपने पत्ते खोल दिए हैं, सपा अपने अभियान को शुरू करने वाली है और बीजेपी अभी मंथन की प्रक्रिया से गुजर रही है। यह तय है कि यूपी इलेक्शन में एक बार फिर से केन्द्रीय मुद्दा जाति ही होगी और कांग्रेस भी उसी नाव पर सवार होकर टिकट बांटेगी, लेकिन ढिंढोरा विकास, किसानों और गरीबों की हमदर्दी का ही पीटा जा रहा है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी के और बिहार चुनाव में राजद-जेडीयू के रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कोशिश यही है कि यूपी में कोई कांग्रेस को नज़र अंदाज न कर सके।

फिर भी सवाल ही है कि क्या इस अभियान से कांग्रेस और ब्रांड राहुल को प्रशांत किशोर चमका पाएंगे? वैसे, देवरिया से दिल्ली का यह अभियान पूरा हो गया तो दो करोड़ लोगों से कांग्रेस का संपर्क तो हो ही जाएगा, यह बात और है कि लोग कांग्रेस को और उसके इस खाट अभियान को कितनी संजीदगी से लेते हैं।

ऐसा भी नहीं है इससे पहले कभी राहुल ने गांव की पगडंडियां नहीं मापी, या दलितो और वंचितों के घर जाकर खुद को उनका हमदर्द साबित करने की कोशिश नहीं की है। पिछले चुनाव में राहुल ने 100 विधानसभाओं का दौरा किया था लेकिन जीत तो महज 28 पर मिली थी। राहुल का लॉन्च नाकाम माना गया था।

इस बार खाट सभाओं के ज़रिए राहुल को रीलॉन्च किया गया है वह भी वर्ज़न 2.0 के साथ। इस बार 39 जिलों और 59 लोकसभा क्षेत्रों और 2500 किलोमीटर की दूरी तय करेंगे।

कर्जदार किसानों की सूची के साथ राहुल उन सबको लिखकर दे रहे हैं कि कर्ज माफ किया जाएगा और बिजली का बिल आधा किया जाएगा। सूत्रों के हवाले से यह ख़बर मिली है कि यह सब पीके का किया कराया है। राहुल की खाट सभा औऱ महापदयात्रा दोनों को मीडिया कवरेज औऱ लोगों तक यह ख़बर पहुंचे इसलिए स्थानीय गांव वासियों को पहले से ही तैयार किया गया था। लुटपाट करने के लिए ही खाट सभा का आयोजन रखा गया था।

कयास यही हैं कि राहुल गांधी की यूपी में किसान पैदल यात्रा, किसानों के कर्ज माफ, बिजली बिल माफ, फसलों के समर्थन मूल्य का पूर्ण भुगतान जैसी किसानी मांगो को लेकर निकली है, खाटों की लूट के साथ खबर फैले और लोगों को पता चल जाए। राहुल की खाट सभा औऱ महापदयात्रा दोनों को मीडिया कवरेज औऱ लोगों तक यह ख़बर पहुंचे इसलिए स्थानीय गांव वासियों को पहले से ही तैयार किया गया था।

अंदाज़ा लगाइए कि राहुल की सभा बाढ़ग्रस्त देवरिया से ही शुरू क्यों हुई? अंदाजा़ लगाइए कि लूटे खाटों पर बैठे गांव के लोग आपस में खाट के बारे में चर्चा करेंगे तो क्या कांग्रेस और राहुल की चर्चा क्या नहीं होगी? जहां समाजवादी पार्टी पहले लैपटॉप बांट चुकी है और जहां इस बार वह स्मार्टफोन बांट रही है, वहां खाटों की लूट क्या जाहिर करती है? खाट गांव के लिए कितने जरूरी है इस पर भी ध्यान दीजिए। ज़मीन पर सो रहे तबके को खाट मिलना कितनी बड़ी बात है इसका अंदाज़ा आपको तभी लगेगा, जब आप गांव को बहुत नज़दीक से देखेंगे।

जो भी हो, सोशल मीडिया पर छाई इस खबर ने एक लहर पैदा की है और जो खाट, गांव और पगडंडी, लोटा और डोरी शहरी शब्दावली से गायब हो चुके थे, इसी बहाने उनकी चर्चा तो हुई। राहुल की खाट सभाओं को कमतर आंकना सियासी भूल होगी। प्रशांत किशोर ने सही निशाना लगाया है।


मंजीत ठाकुर

Monday, September 5, 2016

चीटरों के दौर में टीचर

मधुपुर मेरा जन्मस्थान तो है ही, इसने यह भी तय किया कि मैं किस तरह का इंसान बनने वाला हूं। अपने भैया मंगल ठाकुर को अपना पहला गुरु मानता हूं, जो मेरी हर कामयाबी पर उछले, हर नाकामी पर परेशान हुए।

फिर सुबल चंद्र सिंह, जिन्होंने अपने सभी छात्रों की सखुए की संटी से पीट-पीटकर बंदर से इंसान बनाने की कोशिश की। लेकिन हाय दैव, उनके ज्यादातर छात्र आज भी बंदर ही हैं। दिनेश सर, जो गणित को सरलता से समझा देते थे। 

व्रजनारायण झा, जिन्होंने मुझे संस्कृत पढ़ाते वक्त सीधा बता दिया, व्याकरण गणित की तरह है, लेकिन इसमें कुछ समझ न आए तो सीधा रट लो। एमएलजी उच्च विद्यालय, जहां मैने दसवीं तक पढ़ाई की, वहां अलाउद्दीन अंसारी सर इतिहास पढ़ाते थे। पढ़ाते वक्त संभवतया वह टाइम मशीन में बैठकर उस दौर में पहुंच जाते, जिस दौर का अध्याय वह पढ़ा रहे होते थे। अलाउद्दीन सर ने अपनी कक्षाओ में हमें शनिवार को आधी छुट्टी के बाद हमारे संभावित क्रिकेट मैच की योजना बनाने का पूरा मौका दिया। वह किताब में रमकर हमें अकबर, शाहजहां और बलबन के बारे में बताते रहते थे, और हम फुसुर-फुसर करके यह तय करते थे कि बैटिंग में किस नंबर पर कौन उतरेगा। 

अंग्रेजी पढ़ाते थे रफीक़ सर। उन दिनों बिहार (तब, आजकल वह इलाका झारखंड में आता है) में अंग्रेजी की छात्रों से मुठभेड़ छठी कक्षा में होती थी, और मान लिया जाता था कि पांचवी कक्षा तक तो छात्रों ने अंग्रेजी खुद-ब-खुद मां-बाप से सीख ही ली होगी। तो रफीक़ सर, अंग्रेजी पढ़ाते थे और यह मानते थे कि वह जो फर्राटेदार अंग्रेजी छठी-सातवीं-आठवीं के छात्रों के सामने बतियाते थे, तो यह सोचते थे कि इन सबको समझ में आ रहा होगा। अंग्रेजी बोलने का उनका  लहज़ा  खोरठानुमा था। खोरठा मधुपुर के आसपास बोली जाने वाली बोली है, जिसमें मैथिली-बांगला-और संताली के शब्द घुलेमिले होते हैं। बहरहाल, किसी का ध्यान भटकने पर रफीक़ सर ब्लैक बोर्ड के पास से ही चॉक फेंककर सीधे छात्र के मुंडी पर निशाना लगाते थे और कहतेः अंग्रेजी नहीं पढ़नी हो तो जाओ, गणेश की दुकान पर जाकर घुघनी-मूढ़ी खाओ। (घुघनीः काले चने के छोले, मूढ़ीः चावल के मुरमुरे)

मौलाना सर की फ़ारसी की क्लास में हम दुनिया के नक्शे के बारे में पढ़ते क्योंकि वह पिताजी के दोस्त भी थे और फ़ारसी की कक्षा के वक्त तक स्कूल में सारे बच्चे भाग निकलते थे।

बहुत शिक्षकों ने पढ़ाया, सिखाया, मुझे बनाने और बिगाड़ने में अपनी अहम भूमिका अदा की। इनमे आलोक बक्षी का नाम बहुत आदर से लेना चाहता हूं।

बाद में कई शिक्षक हुए जिन्होंने मुझे बनाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। उन सभी गुरुओ और सबसे बड़े गुरू वक्त के सामने सिर झुकाता हूं, जिसने दुनिया को समझने की थोड़ा सा सलीका मुझे सिखा दिया है। यह जरूर है कि अपनी बाजिव कीमत लेकर।

मंजीत

Friday, September 2, 2016

सियासत है काजर की कोठरी

बहुत दिन नहीं बीते हैं, जब रामलीला मैदान में तिरंगा लहराते हुए अरविन्द केजरीवाल इकट्ठी भीड़ को कहते थेः सारे नेता चोर हैं। नेताओं से उकताई हुई भीड़, तब ज़ोर से तालियां बजाती थी। अभी आम आदमी पार्टी के विधायकों पर, संसदीय सचिव मामले से लेकर सेक्स सीडी और छेड़खानी के मामले चल रहे हैं, जनता एक बार फिर ताली बजा रही है। ताली बजाना जनता का काम है। सियासत में शूर्पनखा की नाक कटे या किसी और की, जनता ताली बजाती है।

फिर अन्ना आंदोलन के मूलधन को चुनावी खाते में डालकर केजरीवाल ने बड़ी जुगत से इसका ब्याज दिल्ली में उठाया और शायद पंजाब और बाकी जगहों पर भी उठा ही लेते। राजनीति को कीचड़ मानकर उसमें कूदकर तंत्र बदलने का सपना (अगर कोई हो) केजरीवाल ने अगर 2012 में देखा तो उसके पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन का दबाव था।

जनता को जोश था तो बिना तजुर्बो वालों को सिर्फ केजरीवाल के नाम पर जिताते चले गए। बंपर बहुमत दिया। इसीलिए सवाल सिर्फ इतना नहीं कि केजरीवाल के तीन मंत्री तीन ऐसे मामलो में फंसे हैं, जो आंदोलन में शामिल किसी के लिये भी शर्मनाक हों। सवाल तो यह है कि तोमर हो या असीम अहमद खान या फिर संदीप कुमार, इन्होंने अन्ना आंदोलन के न तो कोई भूमिका निभाई, ना ही केजरीवाल के राजनीति में कूदने से पहले कोई राजनीतिक संघर्ष किया।

सियासत का साफ करने का दावा, और सभी नेता चोर है के नारे पर सवार आम आदमी पार्टी के पांच विधायक नौंवी पास हैं तो 5 विधायक दसवीं पास। शुरू में ही कानून मंत्री बने जितेन्द्र तोमर तो कानून की फर्जी डिग्री के मामले में ही फंस गये।

तो क्या यह मान लिया जाए आम आदमी पार्टी ने सियासत को उसी तर्ज पर अपनाया जो बाक़ी की पार्टियों के लिए भी मुफीद रही है। मसलन, लोकसभा में 182 सांसद, देश भर की विधानसभाओं में 1258 विधायक और तमाम राज्यों में 33 फीसदी मंत्री दागदार है। तो साथी लोग तर्क देते हैं, ऐसे में केजरीवाल के 11 विधायक दाग़दार हुए तो क्या?

सवाल यह भी नहीं है कि जिस सेक्स सीडी में संदीप कुमार दिख रहे हैं वह गैर-कानूनी है या सिर्फ अनैतिक। संदीप के साथ सीडी में दिखने वाली महिला ने कोई शिकायत नहीं की है, संदीप कुमार की पत्नी ने कोई शिकायत नहीं की है तो मामला कहीं से भी कानूनी नहीं है। कई लोग इस बात को लेकर मीडिया को कोस रहे हैं कि सबके शयनकक्षों में झांकने का हक़ कैसे ही मीडिया को। ठीक है।

लेकिन इसी के बरअक्स सवाल तो यह भी है कि जिन आदर्शों के साथ आम आदमी पार्टी बनाई गई, गठन के वक्त जो सोच थी, उम्मीदें थीं, वह सब इतनी जल्दी कैसे और क्यों मटियामेट होने लगी?

सत्ता आती है तो सबसे पहले सच्चे मित्र छूट जाते हैं और मित्रों को आप दुश्मन मानते हैं यह तो केजरीवाल ने भी साबित किया। विचारक योगेन्द्र यादव और सहायक प्रशांत भूषण को बाहर का रास्ता दिखाकर चमचों की फौज़ खड़ी करके केजरीवाल ने आगे की राह को खाई की तरफ मोड़ दिया।

संदीप कुमार प्रकरण को महज सेक्स सीडी पर मत रोकिए। इसको एक राजनीतिक घटना की तरह भी देखिए। जिस ओमप्रकाश ने सीडी उपलब्ध कराई है, वह है कौन? वह संदीप कुमार से चुनाव में हारे पूर्व-विधायक जयकिशन का साथी है। कथित तौर पर सरकारी ज़मीन पर कब्जा करके कोयले का कारोबार करता है और उसने संदीप कुमार पर पैसे मांगने और धमकाने के आरोप भी लगाए थे।

अचानक उसके पास मंत्री की अश्लील सीडी कहां से आ गई? आखिर अनजान शख्स ने ओमप्रकाश को ही सीडी और फोटोग्राफ वाला लिफाफा क्यों दिया और कैसे खुद को कोयला कारोबारी बताने वाला शख्स अचानक ही कांग्रेस का नेता बन गया?

देखिए, सियासत काजर की कोठरी है। सीडी में संदीप थे यह तय रहा, तभी तो केजरीवाल ने अपने मंत्रिमंडल से उनको बाहर का रास्ता दिखाया। लेकिन संदीप ने दलित कार्ड खेला, जो एक हद तक हास्यास्पद ही है। लेकिन यह न कहिए कि निजी मामले को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है, शयनकक्ष की सियासत हो रही है।

मोदी के सूट पर ही कितना तंज कसा था मनीष सिसोदिया ने और केजरीवाल ने! मनीष सिसोदिया ने नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति पर तंजभरा ट्वीट किया थाः झूला झुलाने, बिरयानी खिलाने और 10-10 लाख के सूट पहनकर दिखाने से दुनिया में कूटनीति नहीं चलती।

कपड़े पहनने और खाने पर सियासत की शुरूआत आपने की थी, तो कपड़े उतारने पर भी सियासत होगी ही। मानता हूं कि संदीप कुमार की सेक्स सीडी का मामला अभी तक गैर-कानूनी नहीं है, लेकिन सियासत में लगे लोगों को जनता साफ-सुथरा पसंद करती है।

वरना कितने सिंघवियों, राघवों और तिवारियों ने बहुत कुछ किया है, आज भी उनकी राजनीति चमक रही है। संदीप की भी चमक जाएगी। और मोरल? सियासत में मोरल नाम का कोई ग्राउंड नहीं है।


मंजीत ठाकुर