Friday, June 17, 2016

बाबूजी की चिट्ठी मेरे नाम

दौड़ पड़ते थे जब
तुम्हारे नन्हें नन्हें पाँव
बारिश भीगी मिटटी में
अपने नाज़ुक निशाँ छोड़ने
छुआ था कितनी ही बार
मेरी हथेलियों ने उन्हें
और तुम ये समझे
कि रुखे मैदान में
घास का एक मामूली टुकड़ा होगा
बिखर जाते थे जब
तुम्हारे उलझे उलझे बाल
माँ से नाराज़
तुम्हारी आँखों पर
सम्हाला था कितनी ही बार
मेरी उँगलियों ने उन्हें
और तुम ये समझे
कि छू के गुज़रा
हवा का एक मामूली झोंका होगा
तुम्हारी फ़िक्र
तब भी उतनी ही थी मुझे
बैठते थे जब तुम
क्लास की आखिरी सीटों पर
जितनी अब होती है
भूलते हो जब तुम
सुबह का नाश्ता
रात का खाना
बहुत से काम के बहाने से,
तुम्हारे हाथ में सिगरेट
बुरी नहीं लगती
मुस्कुरा देता हूँ
कि नन्हीं उंगलियाँ
अब नन्हीं नहीं रहीं
थामने लगी हैं
कितने रिश्तों की डोर
बुरा लगता है
तो बस वो डर
जो चला आता है
तुम्हारी सिगरेट के
धुंए के साथ
डरने लगता हूँ
कि इस धुंए में
धुंधला न जाएँ
कहीं वो आँखे
जिनमें जलते हैं
तुम्हारे नाम के दिए
मैं अब भी हूँ
उन दीयों कि लौ में
और इस बार
तुम सही समझे
कि उन आँखों में
तुम्हारा प्यार पलता होगा

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-06-2016) को "वाह री ज़िन्दगी" (चर्चा अंक-2377) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सुपरहिट फिल्मों की सुपरहिट गलतियाँ - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !