Monday, December 25, 2017

मधुपुर का तिलक विद्यालय

मधुपुर. अपने कस्बाई खोल से शहरी ढांचे में ढलने के लिए यह शहर ज़रूर छटपटा रहा होगा, लेकिन जो लोग शहरों में रहते हैं, वे ही बता सकते हैं कि महानगरों के जीवन में जो संकीर्णता और भागमभाग होती है, वह अपनी जड़ों की याद दिलाती है. दिलाती रहती है.

हर किसी को अच्छा लगेगा कि उनका शहर आगे बढ़े और तरक्की करे.

लेकिन अगर नगर नियोजन सही हो, तो भी सपनों और हकीकत में फासले कम रखने चाहिए. आखिर हर शहर, क़स्बे और गांव की एक आत्मा होती है. नकल में वह मर जाएगी. आपको अच्छा लगेगा कि आपके शहर के दूसरे मुहल्ले या अपने ही मुहल्ले को लोग आपसे अनजान रहें!

तो एक सवाल यही उठता है कि क्या सब ठीक ठाक है? क्या मधुपुर एक बेहतर शहर के रूप में विकसित हो रहा है? पर इसकी परीक्षा कभी कभी अतीत के उन 'टिप्स' से मालूम हो सकता है जो हमारे महान लोगों ने दिया था. खासकर जो लोग शहर का 'मास्टर प्लान' बनाते हैं, बनाना चाहते हैं या बना रहे हैं.

मुझे नहीं मालूम कि मधुपुर के लोग मधुपुर को कितना बड़ा शहर बनाना चाहते हैं, लेकिन मैं चाहता हूं कि मधुपुर सभी शहरी सुविधाओं से युक्त तो हो लेकिन उतना ही छोटा, उतना ही प्यारा, उतना ही हरा-भरा बना रहे. नदियों में पानी रहे, झरने बहते रहे, लोग प्यारे रहें, कुछ सड़कें कच्ची रहें, धान के खेत रहे, भेड़वा और गोशाला मेला बना रहे...

कुछ दिन पहले भाई रामकृपाल झा ने मधुपुर के इतिहास के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की थी. इस विषय पर उमा डॉक्यूमेंटेशन सेंटर के सर्वेसर्वा उत्तम पीयूष ने बहुत काम किया है. लेकिन मैंने अपने स्तर पर जो जानकारी जुटाई है उसे साझा करने की कोशिश कर रहा हूं. अपने पहले के पोस्ट में मैं तिलक विद्यालय के दिनों की चर्चा कर रहा था, वह चर्चा जारी रहेगी और कोशिश करूंगा कि इसी बहाने कुछ इतिहास भी आए.

आपमें से अधिकतर को पता होगा कि अपने कस्बेनुमा शहर में कितनी विशिष्टता थी. सन् 1925 में जब महात्मा गांधी मधुपुर पधारे और उन्होंने तब एक 'राष्ट्रीय शाला '(नेशनल स्कूल) तिलक विद्यालय और नगरपालिका का उद्घाटन किया था. यह बड़ी और ऐतिहासिक घटना है मधुपुर के संदर्भ में. एक ज्ञान और राष्ट्रीयता का अलख जगाने वाले केंद्र और एक शहरी जीवन को सिस्टम देने वाला केंद्र. यह बड़ी बात थी. बड़ा संयोग.

तिलक कला विद्यालय अपने पीछे स्वर्णिम इतिहास लिए खड़ा है. बापू उस दौरान आजादी की लड़ाई के साथ-साथ लोगों में स्वदेशी और खादी अर्थशास्त्र के प्रति भी जागरूकता फैला रहे थे. एक पत्र से इस बात की जानकारी मिली है. इससे पता चलता है कि छात्रों के जरिए सूत कताई को लोकप्रिय बनाने के प्रति वे काफी संजीदा थे. पत्र के अनुसार, बापू आठ अक्टूबर 1934 को पहली बार मधुपुर आए थे. उन्होंने नौ अक्टूबर 1934 को ऐतिहासिक तिलक कला विद्यालय के विषय में पत्र लिखा था. उसमें इस विद्यालय के बारे में जिक्र किया गया है. कहा गया है कि यहां पर राष्ट्रीय शाला का आयोजन किया गया था. वहीं प्रधानाध्यापक ने अभिनंदन पत्र के माध्यम से तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जिक्र करते हुए विद्यालय की समस्याओं की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था.

इसमें कहा गया था कि सूत कताई के कारण विद्यालय में लड़कों की उपस्थिति कम हो रही है. साथ ही लोगों की तरफ से विद्यालय को कम आर्थिक सहायता मिल रही है. कुछ लोगों ने अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए हटा लिया है क्योंकि कार्यशाला में सूत कताई का विषय अनिवार्य कर दिया गया है. इस अभिनंदन पत्र में बापू से मुश्किलों से बाहर निकलने का मार्ग पूछा गया था.

बापू का जवाब थाः यदि शिक्षकों को अपने कार्य में श्रद्धा है तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए. सभी संस्थाओं को भले बुरे दिन देखने पड़ते हैं और यह स्वाभाविक ही है. उनकी ये कठिनाई उनकी परीक्षा है. दृढ़ विश्वास के बल पर भीषण तूफान का भी सामना किया जा सकता है. यदि शिक्षकों को पूर्ण विश्वास है कि वे पाठशाला के जरिए आसपास के लोगों को विकास का संदेश दे रहे हैं तो उन्हें बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए. कुछ ही दिनों में उन्हें वहां के अभिभावकों से अनुकूल सहयोग मिलने लगेगा. लेकिन यदि उनके इस कार्य में वहां के लोगों का जल्दी सहयोग नहीं मिले तो उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है. पाठशाला में एक भी छात्र रहे तो उन्हें उसे चलाते रहना है, क्योंकि नए विचार का शुरूआत में लोग विरोध जरूर करते हैं.

सुना है मधुपुर के इस ऐतिहासिक तिलक विद्यालय में महात्मा गांधी और भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी कई स्मृतियां आज उपेक्षा की वजह से संकट में हैं. आजादी से पहले 1925 से 1942 तक तिलक विद्यालय मधुपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख सेनानियों को कैद करने की कोशिश की थी तो वे लोग भूमिगत हो गए और गुस्से में अंग्रेजों ने विद्यालय के पुस्तकालय को ही जला दिया.

1936 में डॉ राजेंद्र प्रसाद मधुपुर आए थे. यहां उनको आजादी के दीवानों से मुलाकात करनी थी. इसी स्कूल में राजेंद्र बाबू ने एक रात बिताई थी. पुआल का बिछौना लगा और पाकशाला में भोजन बना. बाद में प्रांतीय चुनावों (1937) के वक्त भी राजेंद्र बाबू मधुपुर आए थे.

गांधी जी ने तिलक विद्यालय से जाकर उन्होंने मधुपुर, मधुपुर के कुदरती सौंदर्य और नगरपालिका पर जो कुछ लिखा वह आज भी 'संपूर्ण गांधी वांङमय', खंड- 28 (अगस्त-नवंबर 1925) में सुरक्षित है. आप और हम समझें कि कोई महानायक कैसे छोटी से छोटी लगती बातों पर गौर करते हैं, उसे समझते और लिखकर या बोलकर समझाते हैं. और उसके निहितार्थ आप भी समझें कि आखिर इस छटपटाते से शहर को कैसे विकसित करें. गांधीजी ने मधुपुर के संदर्भ में, नगरपालिका के दायित्व से जुड़ी बातें लिखी थी. क्या ये बातें जो मधुपुर के प्राकृतिक सौंदर्य और स्थानीय स्वशासन से जुड़ी हैं क्या आज भी प्रासंगिक हैं?

उन्होंने कहा था, "हमलोग मधुपुर गए. वहां मुझे एक छोटे से सुंदर नए टाउन हाल का उद्घाटन करने को कहा गया था. मैंने उसका उद्घाटन करते हुए और नगरपालिका को उसका अपना मकान तैयार हो जाने पर मुबारकबाद देते हुए यह आशा व्यक्त की कि वह नगरपालिका मधुपुर को उसकी आबोहवा और उसके आसपास के कुदरती दृश्यों के अनुरूप ही एक सुंदर जगह बना देगी. मुंबई व कलकत्ता जैसे बड़े शहरों को सुधार करने में बडी मुश्किलें पेश आती हैं मगर मधुपुर जैसी छोटी जगहों में भी नगरपालिका की आमदनी बहुत ही थोड़ी होते हुए भी उन्हें अपनी अपनी हद में आने वाले क्षेत्र को साफ सुथरा रखने में मुश्किलों का सामना भी नहीं करना पड़ता."

1925 के बाद शहर, साधन और सुविधाएं काफी बदल गयी है. जनसंख्या का दबाब और शहरीकरण की दिक्कतें भी बढ़ी हैं. नेता भी बदल गए हैं. आज का आक्रामक नेतृत्व क्या यह जानता भी है कि गांधी ने मधुपुर के बारे में क्या कहा था? नगरपालिका के कर्ता-धर्ताओँ ने कभी सोचा भी कि हमें महात्मा गांधी के मधुपुर के संदर्भ में कहे गए विचारों को न केवल वर्तमान 'नगरपर्षद' पर कहीं शिलालेख पर उत्कीर्ण कराना (लिखाना) चाहिए बल्कि उनके विचारों को समझने और अनुकरण करने का भी प्रयास करना चाहिए?

उन्हें न तो समझ होगी, न फुरसत होगी. होती तो करा दिए होते.

तिलक विद्यालय के मजेदार पलो पर पोस्ट अगली दफा.

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