Friday, February 16, 2018

जीवन का असली मजा तो गोलगप्पे में है

बाजार गया तो देखा भीड़-भाड़ के बीच भी एक जगह कुछ ज्यादा ही भीड़ थी. गोल घेरा-सा बना था. खासकर महिलाओं की ज्यादा तादाद थी. जिज्ञासावश वहां गया तो पता चला कि वहां गोलगप्पे बिक रहे हैं.

अब गोलगप्पों का तो क्या है, आपको दिल्ली में बंगाली मार्केट से लेकर कनॉट प्लेस और संगम विहार से लेकर रोहिणी तक मिल जाएंगे. लेकिन यह ऐसा शुद्ध स्वदेशी डिश है जो देश के हर हिस्से में मिलता है.

गोलगप्पा उर्दू का शब्द है. जैसा नाम से ही पता चलता है कि गोल पूरी जैसी चीज में आलू के चटकारेदार मसाला बनाकर डाला जाता है और उससे भी चटकारेदार रस उसमें भरकर कागज के पत्तल या पत्तों के दोने में रखिए और रखने के फौरन बाद गप्प से उदरस्थ कर जाइए. आपने देर की नहीं, कि बुलबुला फूटा नहीं. तोड़कर इसको खाना तो तकरीबन उतना ही नामुमकिन है जितना ग्यारह मुल्कों की पुलिस के लिए डॉन को पकड़ना.

तो गोल चीज को गप्प से मुंह रख लेने से ही शब्द बना गोलगप्पा. वैसे अंग्रेजीदां लोगों को बता दें कि अंग्रेजी के शब्दकोश में गोलगप्पे का अर्थ ‘पानी से भरा इंडियन ब्रेड’ या फिर ‘क्रिस्प स्फेयर ईटेन’ लिखा गया है! इसके ही एक और नाम पानीपूरी का शाब्दिक अर्थ है "पानी की रोटी" इसके मूल के बारे में बहुत कम जानकारी है पानी पूरी शब्द को 1955 में और गोलगप्पा शब्द को 1951 में दर्ज किया गया.

जरा बताइए तो, गोलगप्पे में डलता क्या है? एक पूरी होती है, जो या तो आटे से बनती है य़ा फिर सूजी मिलाकर. फिर गोलगप्पे वाला अपने अंगूठे से इसमें बड़ी मुलायमियत से एक छेद करता है, और उसमें एक मसाला डालता है. अलग-अलग इलाकों में गोलगप्पे में भरा जाने वाला मसाला अलग हो सकता है. लेकिन आलू उसमें केंद्रीय भूमिका में होता है.

आलू का मसाला तैयार करते वक्त उबले आलू को इमली के पानी, मिर्च, चाट मसाले, प्याज वगैरह के साथ मिलाया जाता है. इस मसाले को गोलगप्पे के अंदर डालकर उसे फौरन मटके में भरे एक और तरल से भरकर आपको दिया जाता है. इसमें भी इमली का रस और नमक होता है, मिर्च का पाउडर भी. लेकिन इसके अलहदा जायके भी होते हैं. कोई नींबू का पानी, पुदीने का पानी, खजूर का पानी और बूंदी डला सिरके का पानी तो है ही, हाल ही में मेरा साबका हींग के स्वाद वाले पानी से भी पड़ा. पर मेरा पसंदीदा तो झारखंड-बंगाल वाला हल्का खट्टापन लिए इमली की खटाई वाला पानी ही है.

अभी यह लिख रहा हूं तो गोलगप्पे का जायका जबान पर तैर गया है और मुंह में पानी आ गया.

वैसे झारखंड उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बिहार में गोलगप्पे को गुप चुप कहते हैं. गोलगप्पे के दीवानों की संख्या पूरे देश में है. सो उन्होंने अपने प्यार के मुताबिक, गोलगप्पे को कई नाम दिए हैं. महाराष्ट्र में इसका नाम पानीपूरी बताशा है तो गुजरात में पानीपूरी. बंगाल और बांग्लादेश में इसको फुचका कहते हैं.

कुछ लोग गोलगप्पे की शुरूआत बनारस से मानते हैं. सन् 1970 में दिल्ली से बच्चों की एक मैगजीन निकलती थी, जिसका नाम रखा गया था ‘गोलगप्पा’. लेकिन कहा-सुना जाने वाला इतिहास कुछ और कहता है. जो लोग दिल्ली आए हैं या यहां रहते हैं उन्हें पुरानी दिल्ली खासकर लाल किले के आसपास के इलाके में जाने का मौका ज़रूर मिला होगा. जिस जगह चांदनी चौक है, वहां आपने एक चौक देखा होगा जिसे फव्वारा कहते हैं. इस अलकतरे की आज की सड़क पर बादशाह शाहजहां के वक्त में नहरें बनवाई गई थीं, जो यमुना का पानी किले और शहर तक लाती थीं. पूरे शाहजहांनाबाद (उस वक्त की दिल्ली) के बाशिंदे उसी नहर से पानी पिया करते थे.

लेकिन, एक वक्त आया जब उस नहर का पानी किसी वजह से गंदा हो गया और शहर के लोग कै-दस्त से परेशान हो गए. फिर शाहजहां के बेटी रोशनआरा ने शाही हकीम को बुलाकर इन बीमार लोगों के लिए कोई नुस्ख़ा तैयार करने को कहा. हकीम साहब ने नुस्खा तैयार कर दिया और लोगों को पिलाया. लोग चंगे हो गए पर कुछ लोगों को इसका जायका बहुत मजेदार लगा. सो उन शौकीन लोगों ने इस नुस्खे को बनाना जारी रखा और उसे आटे की छोटी पूरियों में भरकर पिया जाने लगा. तो इस तरह गोलगप्पे का जन्म हुआ जो कहीं फुचका, कहीं गुपचुप, कहीं पानी बताशा, कही पानी पूरी और कहीं किसी और नाम से जाना जाता है.

राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे पताशी नाम से जाना जाता है. लखनऊ में पांच अलग-अलग टेस्ट के पानी के साथ मिलने वाले पांच स्वाद के बताशे भी काफी फेमस हैं. इसका पानी सूखे आम से बनाया जाता है. गुजरात में चपातियों को फुल्की कहा जाता है, लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में गोल गप्पों को भी फुल्की कहा जाता है. इस नाम से इसे काफी कम लोग जानते हैं. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में गोल गप्पों को टिक्की कहा जाता है.

जो लोग थोड़ी भदेस जबान जानते हैं उनके लिए पड़ाका शब्द जरूर पटाखे से ताल्लुक रखता होगा लेकिन अलीगढ़ में गोलगप्पों को पड़ाका ही कहते हैं. तो गुजरात के कुछ हिस्सों में इसे पकौड़ी भी कहा जाता है. इसमें सेव और प्याज मिलाया जाता है और पानी को पुदीने और हरी मिर्च से तीखा बनाते हैं. कीमत भी इसकी कोई ज्यादा नहीं. जो गोलगप्पा हम अमूमन खाते हैं अभी, वह कोई दस रुपए में चार मिलते है. बचपन में एक रू. के दस गोलगप्पे मिलते थे, इसकी याद तो मुझे भी है.

लेकिन असली मजा तो तब है जब कोई गोलगप्पे वाले से कहे, भैया इसमें मिर्ची थोड़ा और डालना. लोग जब गोलगप्पे जब खा चुके होते हैं तो साथ में घलुए में, भैया सूखी खिला दो कहना कत्तई नहीं भूलते. आखिर मूल से ज्यादा प्यारा सूद जो होता है. तो अगली दफा जब भी गोलगप्पे खाने जाएं तो शाही हकीम और शहजादी रोशनआरा को जरूर याद कीजिएगा और बरसात के मौसम में इससे बचने की कोशिश तो कीजिएगा, लेकिन साथ ही यह भी याद रखिएगा कि यह जो गोलगप्पा है न, यह है असली स्वदेशी डिश.

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