Monday, April 23, 2018

कृषि सरकार की प्राथमिकताओं में कहां खड़ी है?

खुदा का शुक्र है कि इस साल इंद्र भगवान भारत पर अपनी कृपा बनाएंगे. इस साल मौसम विभाग ने मॉनसून सामान्य रहने का अनुमान लगाया है. यह अनुमान कितने राहत से भरा है यह वही लोग बता सकते हैं जिनके खेत में बिवाइयों की दरारें पड़ी हैं या फिर दिल्ली में बैठे नीति-नियंता जो बारिश की बूंदों की उम्मीद चातक की तरह लगाए हैं. अब इन नीति नियंताओं की नीतियों का सूचकांक भी बारिश की नमी से हरा-भरा होगा.

इस साल पिछले दस साल के औसत के मुकाबले 97 फीसदी बारिश होने के आसार हैं. किसानों के लिए ये राहत की खबर है.

बारिश जब होती तब होगी, फिलहाल तो इस अनुमान से ही राहत है क्योंकि दक्षिण भारत के कुछ राज्य पानी के गहरे संकट से जूझ रहे हैं. केरल सरकार 27 मार्च को राज्य के 14 ज़िलों में से 9 ज़िलों को सूखा-ग्रस्त घोषित कर चुकी है. राज्य के प्रभावित ज़िलों में टैंकरों से पानी पहुंचाने के लिए बड़े स्तर पर पहल की गई है. साफ है, केरल के सूखा प्रभावित किसानों को देश में मॉनसून का सबसे ज्यादा इंतजार है.

पिछले साल अक्टूबर से दिसंबर के बीच औसत से कम बारिश हुई है जिसका असर देश के बड़े हिस्से में साफ तौर पर दिख रहा है. सबसे ज्यादा चिंता उत्तर भारत को लेकर है जहां 2013 के बाद से कुछ राज्यों में सूखा पड़ चुका है. इस इलाके के 6 बड़े जलाशयों में सिर्फ 20% पानी बचा है जो पिछले साल इस समय 23% था.

वैसे मॉनसून की बारिश भारत की राजनीति को भी प्रभावित करती है. प्रधानमंत्री कार्यकाल के आखिरी साल में ये खबर उनके लिए भी राहत देने वाली है. फसल अच्छी हुई तो किसानों की नाराजगी कुछ कम होगी.

किसानों की नाराजगी दूर करना बेहद अहम है, क्योंकि भारत में चुनाव दालों और प्याजों की कीमतों के आधार पर जीते और हारे जाते हैं (मंदिर वगैरह तो भावनात्मक मुद्दे हैं)

कुछ साल पहले, तब के आंध्र प्रदेश में. तेलुगूदेशम पार्टी हैदराबाद को आधुनिक बनाने के चंद्रबाबू नायडू की पुरजोर कोशिशों के बाद भी चुनाव में पटखनी खा गई थी. हाल में, गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का जनादेश सिकुड़ गया. दोनों ही मामलों में किसानों और ग्रामीण आबादी की नाराजगी बड़ी वजह बताई गई.

हालांकि ग्रामीण आबादी और खेती को एक दम से एक ही घेरे में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह सच है कि दोनों एक दूसरे से नजदीकी और जरूरी रिश्ता रखते हैं. पिछले कुछ साल से हमारे कृषि विकास के आंकड़े गोते लगा रहे हैं.

ऐसे में, वक्त का तकाजा है कि बारिश की उम्मीदों के साथ ही खेती को आधुनिक बनाने और साथ में कृषि गतिविधियों को थोड़ा तकनीक का साथ मिले. पिछले ब्लॉग में मैंने ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद जीन रिवॉल्यूशन की बात की थी.

अब जरूरत है कि केंद्र सरकार कृषि क्षेत्र में कुछ और नई पहल करे और खेती के विकास को समग्रता की तरफ ले जाए. इन पहलों को लागू करने में राज्यों की सहमति के साथ उनके तर्कों को भी स्थान देना चाहिए. आखिर कृषि राज्य का विषय होने के साथ अलग-अलग राज्यों की जरूरतें भी अलग और स्थानीय किस्म की होती हैं.


भारत में कृषि नीतियों में बदलाव की सोचने से पहले जरा एक नजर अतीत पर डालने की जरूरत है. जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने अपने कार्यकाल में नीलम संजीव रेड्डी को कृषि मंत्री पद का प्रस्ताव दिया था, जिसे रेड्डी ने ठुकरा दिया.

वजहः उनके पूर्ववर्ती, जयराम दास दौलतराम दास, के.एम. मुंशी और रफी अहमद किदवई जैसे कृषि मंत्री कृषि क्षेत्र के भले के लिए नगण्य उपलब्धियां ही हासिल कर पाए थे. ऐसे में शास्त्री जी ने उद्योगों के मुकाबले कमजोर दिख रहे इस सेक्टर की कमान तब भारी उद्योग मंत्री रहे सी.सुब्रह्मण्यम को सौंपी थी.

पहले तो सी.सुब्रह्मण्यम को लगा कि उनका डिमोशन कर दिया गया है लेकिन उसके बाद एम.एस. स्वामीनाथन और एस. शिवरामन के साथ इस तिकड़ी ने भारतीय कृषि की किस्मत बदलने की नींव रखनी शुरू कर दी थी.

साल 2000 तक हरित क्रांति अपनी रफ्तार से चलती रही, जब तक कि नए नई राष्ट्रीय कृषि नीति (एनएपी) की नींव तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने नहीं रखी. एनएपी का लक्ष्य सालाना 4 फीसदी कृषि विकास दर हासिल करने का था (जो कभी हासिल नहीं किया जा सका) और किसानों को बेहतर जीवन शैली मुहैया कराने के लिए ग्रामीण बुनियादी ढांचे को मजबूत करना था.

बहरहाल, इस कदम के बाद यूपीए सरकार ने किसानों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन 2004 में किया था और इसकी रिपोर्ट 2006 में आई.

इतनी बातों का मर्म यही है कि इतनी रस्साकस्सी के बाद भी देश में कृषि को लेकर एक समग्र नीतिगत फ्रेमवर्क नहीं बन पाया है, ताकि कृषि, पशुपालन, और इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों को आगे बढ़ाया जा सके.

इसी कमी का नतीजा है कि कृषि उत्पादन को लेकर देश भर में असमानता है. हम हर बार बारिश और मौसम पूर्वानुमानों के आधार पर शेयर बाजार की बढ़त और घटत की ओर टकटकी लगाए रहते हैं.

जलवायु परिवर्तन के दौर में खेती को नए नजरिए की दरकार है. जिसमें तकनीक और बाकी जरूरतों का ख्याल रखा जाए. एक मजबूत फ्रेमवर्क ही जीन क्रांति समेत कृषि से जुड़ी अन्य जरूरतों का ख्याल रख सकता है.

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Thursday, April 12, 2018

सन्तो जागत नींद न कीजै

जीवन में सबसे जटिल दिखने वाली चीजें सबसे सरल होती हैं, यह कहना किसी को उम्मीद का दिया दिखाने जैसा है. किसी लड़ रहे शख्स के अंदर के नैराश्य को मारकर उसे फिर से हथियार तान लेने के लिए तैयार करने जैसा. वैसे यह सत्य है कि ऐसी प्रेरणाओं की ज़रूरत सबको होती है. कुछ वैसे ही जैसे कि ईश्वर की.

ईश्वर की मौजूदगी आपको सबल बनाती है. आप ईश्वर को नहीं मानते (या खुद को नास्तिक कहते हैं) इसका अर्थ यह नहीं कि ईश्वर का विरोध करें. या किसी मंदिर मस्जिद या किसी और पूजा स्थान न जाएं. नास्तिक होने के लिए किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं होनी चाहिए. आजकल होती है. लोग कहते हैं तुम्हारे व्यवहार से तो लगता नहीं कि तुम नास्तिक हो. नास्तिक होना तर्कशील होना होता है. ईश्वर का विरोध करना नहीं. विरोध करना किसी के होने को स्वीकार्यता देना होता है और आप किसी के नहीं होने की बात को अंतःकरण से मानते हुए भी उसके होने से जुड़े कई कामों से जुड़ सकते हैं और आपको जुड़ना पड़ेगा.

फिर एक तरफ है परंपरा, दूसरी तरफ समाज तीसरी तरफ आपका विचार और चौथी तरफ आप खुद, यानी मैं. यद्यपि मैं मानता हूं कि अगर ईश्वर है तो वह ‘मैं’ ही है. अध्यात्म में ‘तुम’ का स्थान नहीं है. वहां अगर ईश्वर की अवधारणा है तो वह ‘मैं’ ही है. मैं का होना और विद्यमान होने को महसूस करना ही ईश्वर की खोज है. वस्तुतः सत्य यही है.

फिर सत्य की अवधारणा को लेकर कई सवाल हैं. आखिर, सत्य क्या है? जो आपने सुना क्या वह सत्य है? क्या आपने अपनी आंखों से देखा वह सत्य है? आप कहेंगे शायद हां.

सुनी हुई बातें तो आधी सच्ची आधी झूठी. आंखो देखी को आप सत्य मान सकते हैं, लेकिन यकीन करिए वह भी सत्य हुआ नहीं करतीं. एक ने कहा है, Reality is merely an Illusion.

यथार्थ महज एक संभ्रम है. मैं बताता हूं कैसे.

देखिए, पृथ्वी से सबसे नजदीक का तारा है सूर्य और दूसरा सबसे नजदीक का तारा प्रॉक्सिमा सेंचुरी है. प्रकाश की गति करीब 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड होती है और सूर्य पृथ्वी से कोई 15 करोड़ किमी दूर है. इस तरह, सूर्य की रोशनी पृथ्वी तक पहुंचने में 8 मिनट और 20 सेकेंड का वक्त लेती है.

इसीतरह, प्रॉक्सिमा सेंचुरी पृथ्वी से कोई साढ़े 4 प्रकाश वर्ष दूर है. एक प्रकाश वर्ष यानी एक साल में प्रकाश जितनी दूरी तय करे. याद रखिए प्रकाश की गति एक सेकेंड में 3 लाख किमी है.

अब फर्ज कीजिए कि सूर्य की बत्ती अचानक गुल हो जाए तो हमें यह पता चलने में 8 मिनट बीस सेकेंड लगेंगे और प्रॉक्सिमी सेंचुरी का दिया बुझ जाए तो हमें यह पता चलने में साढ़े चार साल का वक्त लगेगा.

इसके बरअक्स, हम अगर कोई ऐसा यान बना लें, जो प्रकाश की गति से चले और हम प्रॉक्सिमा सेंचुरी की तरफ ही चल पड़ें तो दो साल चलने के बाद हमारे पास वह सूचना होगी जिसकी पृथ्वी पर पहुंचने में दो साल और लगेंगे. यानी हम भविष्य की यात्रा पर होंगे. प्रॉक्सिमा सेंचुरी और सूर्य जैसे खबरों तारे हमारी आकाशगंगा में, विभिन्न मंदाकिनियों में और पूरे ब्रह्मांड में मौजूद है. जिनमें से ज्यादातर हमसे कई करोड़ प्रकाश वर्ष दूर हैं. यानी हम अपनी खुली आंखों से आसमान में जो तारे देखते हैं उनमें से कई असल में मौजूद हैं ही नहीं. यथार्थ वाकई भ्रम ही है. इसलिए भ्रम को सत्य न मानिए.

सन्तो जागत नींद न कीजै.

आइए, वापस धरती पर लौटते हैं, जहां प्रकृति ने हमें एक ज्यादा अनमोल उपहार सौंपा है. जिसे हम प्रेम कहते हैं. एक तरफ हम कहते हैं अहं ब्रह्मास्मि. मैं ही ब्रह्म हूं. ब्रह्म में मैं ही हूं...

दूसरी तरफ कहते हैं, मैं तो कूतरा राम का मोतिया मेरा नाम.

प्रेम का कौन सा स्वरूप आपको भाता है? पूजित होना या मंसूर की तरह अन लहक, अन लहक कहकर अपने यार के लिए खुद को बिसरा देना? विकल्प आपके पास है. खुशी किससे ज्यादा मिलती है? जो भी हो यह अनंत की दिव्य विभूति है जो जीवन का आवश्यक अंग है.

क्या आपको अपने प्रिय तक पहुंचकर भावोन्माद होता है? आपकी आंखें भर आती हैं, मन में कसक उठती है? कि इसकी ताबीज की तरह गले से लटकाकर मलंग बन जाऊं?

सोचिए, अगर इंन्द्रियां अपनी-अपनी कार्यशक्ति एक-दूसरे से बदल ले तो संसार में क्या परिवर्तन हो जाएगा? मसलन, हम रंगों को सुनने लगें और ध्वनियों को देखने लगें तो हमारे जीवन में क्या अंतर आ जाएगा?

अपनी किताबह मिस्टिसिज्म में अंडरहिल लिखते हैं,

I Heard flowers that sounded and saw notes that shone.

मैंने उन फूलों को सुना जो शब्द करते थे और उन ध्वनियों को देखा जो जाज्वल्यमान थीं.

प्रेम में शरीर की सारी शक्तियां निरालम्ब होकर अपने को अनन्त की गोद में छोड़ देती हैं. एक तरफ यथार्थ है, जो संभ्रमित करता है अगर आप उस पर विचार करें, दूसरी तरफ अहं ब्रह्मास्मि है जो आपको कहता है कि ब्रह्मांड के केंद्र एक मात्र आप ही है और दुनिया के सार काम आपको केंद्र में रखकर होने चाहिए तीसरी तरफ प्रेम है, जिसमें अगर आप हैं तो आप जॉन स्टुअर्ट ब्लैकी की तरह कहते हैं,

As Fishes swim in briny sea,

As Fouls do float in the air,

From thy embrace we cannot flee,

We breathe and thou art there.

(जिसतरह मछलियां समुद्र में तैरती हैं, जिस प्रकार परिन्दे हवा में झूलते हैं, तेरे आलिंगन से हम अलग नहीं हो सकते. हम सांस लेते हैं, क्योंकि तू वहां मौजूद है.)
यह अनुभूति इतनी दिव्य और अलौकिक होती है कि संसार के शब्दों में स्पष्टीकरण असंभव नहीं तो कम से कम कठिन जरूर है. आप खुद को मैं समझें या खुद को तुम समझें, लेकिन बाकी के लोगों के विचार उस गहराई तक नहीं पहुंच सकते जहां वह जटिल को जटिल और सरल को जटिल और सरल को सरल या जटिल को सरल समझने की पर्याप्त व्याख्या कर सकें.

खुद को और तुम को भी, मैं समझने की स्थिति एक सफर है, उस दिव्य अनुभूति में इंद्रियां अपना काम करना भूल जाती हैं. वे निस्तब्ध होकर अपना काम-काज अव्यवस्थित रूप से करने लगती हैं. इसका विश्लेषण करें तो उसमें हम जाने कितने गूढ़ रहस्यों पर से परदा उठा सकते हैं. फारसी के कवि शम्स तबरीज लिखते हैं,

ब यादे बज़्मे विसालश् दर आरज़ू ए जमालश्

फ़ुतादा बे ख़बर अन्द ज़ेआँ शराब कि दानी

चि खुँशबूअद कि बदूयश बर आस्तान ए कूयश

बराए दीदने रूयश शमे बरोज़ रसानी

हवा से ज़ुल्मए खुद रा बनूरे जाने तो बर अफ़रोज़

(दीवान-ए-शमसी तबरीज़)

(उसके सम्मलिन की स्मृति में,

उसके सौंदर्य की आकांक्षा में,

वे उस मदिरा को—जिसे तू जानता है—

पीकर बेसुध पड़े हैं.

कैसा अच्छा हो कि उसकी गली के द्वार पर

उसका मुख देखने के लिए

वह रात को दिन तक पहुंचा दे

तू अपने

शरीर की इंद्रियों को

आत्मा की ज्योति से जगमगा दे.

ज्ञान की अवस्था चार तरह की होती है, पहला आप जानते हैं कि आप क्या जानते हैं. दूसरा, आप जानते हैं कि आप क्या नहीं जानते. तीसरा आप नहीं जानते हैं कि आप क्या जानते हैं और चौथा आप नहीं जानते कि आप क्या नहीं जानते.

विज्ञान इन चारों कसौटियों पर खुद को सकता है. इसलिए वह विज्ञान है. जो वह नहीं जानता उसे जानने की कोशिश करता है. विज्ञान में कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है. नए समाधान हमेशा अपनाए जाते हैं. अध्यात्म में भी थोड़ा बहुत ऐसा है लेकिन कर्मकांड तो कत्तई नहीं है. विज्ञान इसीलिए मौलिक है. धर्म इसीलिए रोकता है. ईश्वर की जो सत्ता है, उस पर आप सवालिया निशान खड़े नहीं कर सकते. समाज आपको रोकेगा, और तब अनहल्लाज मंसूर की तरह आप अपनी अनुभूति के गीत गाते-गाते थक जाएंगे, लोग समझ ही नही पाएंगे, समाज आपको ईश्वरीय सत्ता का विनाश करने वाला समझकर मंसूर की ही तरह धड़नतख्ते पर भी झुला सकता है.

इसलिए आप तर्कवादी है, आप के पास ईश्वर, सत्य और यथार्थ से जुड़े अपने तर्क हैं तो आप को चुप रह जाना पड़ता है. आपके पास अपार प्रेम है तो आप कई दफा खामोश रह जा सकते हैं कि जिससे आप प्रेम कर रहे हैं वह इसको कितना समझेगा, किस स्तर तक समझेगा, समझेगा भी या नहीं,

नश्वर स्वर से कैसे गाऊं आज अनश्वर गीत!


जारी रहेगा







Wednesday, April 4, 2018

कृषि में ग्रीन के बाद अब जीन क्रांति का वक्त

महाराष्ट्र के किसान जब बिवाई फटे पैरों के साथ नासिक से मुंबई पहुंचे तो सोशल मीडिया में जैसे जाग पड़ गई. सोशल मीडिया पर उधड़ी चमड़ी वाले पैरों की तस्वीरों ने बताया कि बुलेट ट्रेन के सपनों के बाजार में नंगे पैरों से रोटी और राजा का फासला नापते किसानों का कदमताल भारतीय लोकतंत्र का वह विहंगम दृश्य है, जिस पर समय शर्मिंदा है. 21वीं सदी के 18वें बरस के मचान से अपने अन्नदाताओं के पैरों से रिसता हुआ खून पूरा देश देख रहा था.

लेकिन असल सवाल यह नहीं है. यह बेहद फौरी-सा सवाल है, जिसका अर्थ कत्तई कर्जमाफी जैसे छोटे उपायों में नहीं ढूंढा जाना चाहिए. किसानों को मछली देने की बजाय, उन्हें मछली पकड़ना सिखाना होगा.

देश जिस कृषि संकट से गुजर रहा है, जहां गुजरात में पानी की कमी की वजह से बुवाई पर रोक है और कहीं अधिक पैदावार की वजह से उपज की बाजिव कीमत नहीं मिल पा रही है तो वहां किसान तिलमिलाए न तो क्या करे?

भारत में आज की तारीख में भी, जब सेवा क्षेत्र के विस्तार और संभावनाओं की कहानियां कही और सुनाई जा रही हैं, करीब 65 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए खेती या इससे जुडे क्षेत्रों पर निर्भर हैं. यह संख्या देश की आबादी का तकरीबन 50 फीसदी है. साठ के दशक के मध्य से भारत में हरित, श्वेत, पीली और नीली क्रांतियां हो चुकी हैं और भारत खाद्यान्न आयात करने वाले से खाद्यान्न उत्पादन करने वाले ताकतवर देश में बदल चुका है. भारत एफएओ यानी खाद्य और कृषि संगठन में सबसे अधिक अनाज दान करने वाला देश है. लेकिन तथ्य यह भी है कि दुनिया की एक चौथाई भूखी और गरीब आबादी भारत में रहती है.

करीब 12 करोड़ किसान परिवार सबसे गरीब तबके में आते हैं और खेती तथा गैर-खेतिहरों के बीच आमदनी की खाई करीब 1:4 तक बढ़ गई है. औसतन कृषि उत्पादन और कुल कारक उत्पादकता वृद्धि तो कम है ही. एक ओर तो जमीन, पानी, जैव विविधता, और दूसरे प्राकृतिक संसाधन लगातार छीज रहे हैं, दूसरी तरफ भारत बहुत तेजी से, यानी अगले पांच साल में, दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने की दिशा में अग्रसर है.

इन सबके बरअक्स जलवायु परिवर्तन से खेती पर पड़ने वाला असर अलग ही है.

राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक विश्लेषण बताते हैं कि भारत जैसे खेती पर निर्भर या कृषि के लिए महत्वपूर्ण देशों में खेती का विकास गरीबी और भुखमरी के खात्मे में तिगुना अधिक प्रभावी साबित होते हैं, जबकि दूसरे सेक्टर में विकास से यह फर्क उतना अधिक नहीं पड़ता.

अब जिस तरह के कृषि संकट से देश दो-चार है, ऐसे में भारतीय कृषि को एक नए बदलाव की जरूरत है. इसे अधिक समावेशी होना होगा. इसके लिए एमएलएम समीकरण इसे अपनाना होगा, मोर फ्रॉम लेस फॉर मोर यानी कम संसाधनों में अधिक लोगों के लिए अधिक उत्पादन.

इसके लिए खेती-किसानी में आधुनिकता लानी होगी, इसमें उत्पादकता बढ़ाने के लिए वैल्यू चेन का समुचित होना होगा. इसे ही हम इनपुट यूज एफिशिएंसी या इनपुट के इस्तेमाल की अधिकतम योग्यता कहते हैं. खेती को जाहिर है लाभदायक बनाना होगा, जिसके लिए कीमतों का स्थिरीकरण और किसानों का बाजार से सीधे जुड़ाव जरूरी है. खेती को टिकाऊ बनाना होगा यानी इसमें संसाधनों के संरक्षण, उसे बचाने और वृद्धि करने के विकल्प के साथ आगे बढ़ना होगा. खेती में समानता लानी होगी, खेती को हर हालत में गरीबों के पक्ष में और किसान हितैषी बनाना ही होगा. इसमें एक लक्ष्य 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करना भी है.


खेती में आधुनिकीकरण का रास्ता

ग्रीन रिवॉल्यूशन का दौर तो बीत गया. अब जीन रिवॉल्यूशन का दौर आने वाला है. आपको बीटी कॉटन की याद है? एक संकर बीज? भारत में आज की तारीख में कुल 1.2 करोड़ हेक्टेयर में कपास की खेती होती है इसमें से 1.1 करोड़ हेक्टेयर में बीटी कॉटन उगाया जाता है. बीटी कॉटन करीब 70 लाख लघु और सीमांत किसानों के हित में उठाया गया एक कामयाब कदम माना जा सकता है.

इसकी वजह से कपास उत्पादन में कीटनाशकों के इस्तेमाल में सात गुना कमी आई है, दूसरी तरफ, 2001-02 में कोई 4 करोड़ कपास की गांठों का उत्पादन होता था जो अब 14 करोड गांठों तक बढ़ गया है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी 278 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 570 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गया है. रूपयों-पैसों के मामले में इसे बताएं तो यह 60 अरब डॉलर का नफा है. इससे भारत कपास के निर्यातकों में पहले और दूसरे पायदान पर आ गया है.

नीतियों और उसके क्रियान्वयन की जड़ता की वजह से साथ ही तकनीक बदलाव में पीढ़ीगत जड़ता की वजह से ऐसे फायदे दूसरी फसलों में नहीं उठाए जा सके हैं. समावेशी रूप से जैवसुरक्षा और संरक्षा को अपनाकर भारत को विज्ञान की अगुआई वाली बायोटेक नीति को लागू करना चाहिए, लेकिन इसका एक मानवीय पहलू होना चाहिए.

ऐसा कर पाए तो समूचे खाद्य और कृषि सेक्टर में इसका फायदा मिलेगा और इस क्षेत्र की अगुआ तकनीकों का फायदा नई खोजी जा रही तकनीकों के जरिए उठाकर जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक्सान को कम किया जा सकेगा.

(यह लेख इंडिया टुडे में प्रकाशित हो चुका है)